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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ३३
भावधर्ममध्ययनं गया है, यह कहा जाता है । साधु उक्त रीति से रहता हुआ सदा आचार्य के पास रहकर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शिक्षा ग्रहण करता रहे।
टीका - 'लब्धान्' प्राप्तानपि 'कामान्' इच्छामदनरूपान् गन्धालङ्कारवस्त्रादिरूपान्वा वैरस्वामिवत् 'न प्रार्थयेत्' नानुमन्येत न गृह्णीयादित्यर्थः, यदिवा-यत्रकामावसायितया गमनादिलब्धिरूपान् कामांस्तपोविशेषलब्धानपि नोपजीव्यात्, नाप्यनागतान ब्रह्मदत्तवत्प्रार्थयेद. एवं च कर्वतो भावविवेकः 'आख्यात' आविर्भावितो भवति. तथा 'आर्याणि' आर्याणां कर्तव्यानि अनार्यकर्तव्यपरिहारेण यदिवा आचर्याणि-मुमुक्षुणा यान्याचरणीयानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तानि 'बुद्धानाम्' आचार्याणाम् 'अन्तिके' समीपे सदा' सर्वकालं 'शिक्षेत' अभ्यस्येदिति, अनेन हि शीलवता नित्यं गुरुकुलवास आसेवनीय इत्यावेदितं भवतीति ॥३२॥
टीकार्थ - साधु मिले हुए भी इच्छा मदनरूप काम भोगों को अथवा गन्ध, अलङ्कार और वस्त्र आदि को वैरस्वामी के समान ग्रहण न करे । अथवा विशिष्ट तप के प्रभाव से उत्पन्न गमनादि लब्धि रूप काम भोगों का साधु उपयोग न करे । उक्त लब्धि के द्वारा साधु जहां चाहे वहां जाकर विषय भोग प्रा उसका उपयोग न करे । तथा जो विषय प्राप्त नहीं है, उसकी भी (पूर्वभव में) ब्रह्मदत्त के समान प्रार्थना न करे। ऐसा करने से भाव विवेक प्रकट होता है। तथा साधु सदा अनार्य कर्मो को छोड़कर आर्य्य कर्त्तव्य का अनुष्ठान करे । अथवा मोक्ष प्राप्ति की इच्छा करनेवाले पुरुषों के द्वारा आचरण करने योग्य जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं. उनका आचार्य के पास रहकर सदा अभ्यास करे । इस कथन से यह सिद्ध होता है कि शीलवान् पुरुष को सदा गुरुकुल में निवास करना चाहिए ॥३२॥
- यदुक्तं वृद्धानामन्तिके शिक्षेत्तत्स्वरूपनिरूपणायाह
- जो आचार्यों के पास शिक्षा लेने का कहा - अब उसका स्वरूप बताने के लिए कहते हैंसुस्सूसाणो उवासेज्जा, सुप्पन्नं सुतवस्सियं । वीरा जे अत्तपन्नेसी, धितिमंता जिइंदिया
॥३३॥ छाया - शुश्रूषमाण उपासीत, सुप्रहं सुतपस्विनम् । वीरा ये भातपोषिणः, धृतिमन्तो जितेन्द्रियाः ||
अन्वयार्थ - (सुपन्नं सुतवस्सियं) अपने और दूसरे के सिद्धान्तों को जाननेवाले उत्तम तपस्वी गुरु की (सुस्सूसमाणो उवासेज्जा) शुश्रूषा करता हुआ साधु उपासना करे (जे वीरा) जो पुरुष कर्म को विदारण करने में समर्थ हैं (अत्तपन्नेसी) तथा रागद्वेष रहित पुरुष की जो केवलज्ञान रूप प्रज्ञा है, उसका अन्वेषण करनेवाले हैं (पितिमंता) एवं जो धृति से युक्त (जिइंदिया) और जितेन्द्रिय हैं (वे ही पुरुष पूर्वोक्त कार्य को करते
भावार्थ - जो स्वसमय और परसमय को जाननेवाले तथा उत्तम तपस्वी हैं ऐसे गुरु की शुश्रषा करता हुआ साधु उपासना करे । जो पुरुष कर्म को विदारण करने में समर्थ तथा केवलज्ञान को ढूँढनेवाले, धृतिमान् और जितेन्द्रिय हैं वे ही ऐसा कार्य करते हैं।
टीका - गुरोरादेशं प्रति श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा गुर्वादेर्वेयावृत्त्यमित्यर्थः तां कुर्वाणो गुरुम् 'उपासीत' सेवेत, तस्यैव प्रधानगुणद्वयद्वारेण विशेषणमाह-सुष्ठु शोभना वा प्रज्ञाऽस्येति सुप्रज्ञः-स्वसमयपरसमयवेदी गीतार्थ इत्यर्थः, तथा सुष्टु शोभनं वा सबाह्याभ्यन्तरं तपोऽस्यास्तीति सुतपस्वी, तमेवम्भूतं ज्ञानिनं सम्यक्चारित्रवन्तं गुरुं परलोकार्थी सेवेत, तथा चोक्तम्"नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दसणे चरिते य । धन्ना आवकहाप्ठ गुरुकुलवासं न मुंचंति ||१||"
य एवं कुर्वन्ति तान् दर्शयति-यदिवा के ज्ञानिनस्तपस्विनो वेत्याह-'वीराः' कर्मविदारणसहिष्णवो धीरा वा
1. ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च | धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ।।१।।
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