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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ३४ भावधर्ममध्ययनं परीषहोपसर्गाक्षोभ्याः, धिया बुद्धया राजन्तीति वा धीरा ये केचनासन्नसिद्धिगमनाः, आप्तो-रागादिविप्रमुक्तस्तस्य प्रज्ञाकेवलज्ञानाख्या तामन्वेष्टुं शीलं येषां ते आप्तप्रज्ञान्वेषिणः सर्वज्ञोक्तान्वेषिण इति यावत्, यदिवा-आत्मप्रज्ञान्वेषिण आत्मनः प्रज्ञा-ज्ञानमात्मप्रज्ञा तदन्वेषिणः आत्मज्ञत्वा(प्रज्ञा)न्वेषिण आत्महितान्वेषिण इत्यर्थः, तथा धृतिः-संयमे रतिः सा विद्यते येषां ते धृतिमन्तः, संयमधृत्या हि पञ्चमहाव्रतभारोद्वहनं सुसाध्यं भवतीति, तपःसाध्या च सुगतिर्हस्तप्राप्तेति, तदुक्तम् __“जस्स धिई तस्स तवो तस्स सुग्गई सुलहा । जे अधिइमंत पुरिसा तवोऽवि खलु दुल्लहो तेसिं ॥१॥" तथा जितानि-वशीकृतानि स्वविषयरागद्वेषविजयेनेन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि यैस्ते जितेन्द्रियाः, शुश्रूषमाणाः शिष्या गुरवो वा शुश्रूष(ष्य)माणा यथोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्तीत्यर्थः ॥३३॥ टीकार्थ - गुरु के आदेश को सुनने की इच्छा अर्थात् गुरु आदि का वैयावच करना "शुश्रूषा" कहलाती है, उसे करता हुआ मुनि, गुरु की सेवा करे । अब शास्त्रकार उस गुरु के प्रधान दो गुणों को बताते हुए विशेषण कहते हैं। जिसकी प्रज्ञा शोभन है अर्थात् जो स्वसमय और परसमय को जाननेवाला गीतार्थ साध है. उसको 'सप्रज्ञ' कहते हैं तथा जो बाहर और भीतर तप करनेवाला है, उसे 'सुतपस्वी' कहते हैं । ऐसे ज्ञानी और सम्यक् चारित्रवाले गुरु की परलोकार्थी पुरुष सेवा करे । जैसा कि कहा है (नाणस्स) अर्थात् गुरु की सेवा करने से पुरुष ज्ञान का भाजन होता है तथा दर्शन और चारित्र में अत्यन्तस्थिर होता है । इसलिए भाग्यशाली पुरुष मरण पर्यन्त गुरुकुलवास को छोड़ते नहीं है। जो पुरुष इस कार्य को करते हैं, उन्हें शास्त्रकार दिखाते है ? जो पुरुष कर्म को विदारण करने में समर्थ हैं तथा परीषह और उपसर्गों से क्षोभ को प्राप्त नहीं होते हैं एवं जो अच्छी बुद्धि से शोभा पानेवाले निकट भविष्य में मोक्ष जानेवाले धीर हैं तथा जो रागद्वेष रहित सर्वज्ञ पुरुष की केवलज्ञानरूप प्रज्ञा के ढूँढनेवाले अर्थात् सर्वज्ञोक्त वचन का अन्वेषण करनेवाले हैं, यद्वा जो पुरुष आत्मज्ञान अथवा आत्म कल्याण को ढूँढनेवाले हैं, तथा जिस पुरुष में संयम में रतिरूप धीरता विद्यमान है, क्योंकि संयम में धीरता होने से ही पाँच महाव्रतरूपी भार का वहन सुसाध्य होता है, तथा तप से सुगति हाथ में मिली हुई-सी होती है, जैसा कि कहा है __ (जस्स) अर्थात् जिसमें धृति है, उसी को तप होता है और जिसको तप है, उसको सुगति सुलभ है, जो पुरुष धृति से हीन हैं, उसको तप दुर्लभ है । एवं इन्द्रियों के विषयों में रागद्वेष को जीतकर जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है, वे ही शिष्य गुरुकुल में निवास करके उक्त गुरु की सेवा करते हैं अथवा वे ही गुरु गीतार्थ और सुतपस्वी हैं ॥३३।। - यदभिसंधायिनः पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्ति तदभिधित्सुराह - जिस बात का अनुसन्धान करनेवाले पुरुष ज्ञानी तथा तपस्वी होते हैं, उसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं, गिहे दीवमपासंता, पुरिसादाणिया नरा । ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीवियं ॥३४॥ छाया - गृहे दीप (द्वीप) मपश्यन्तः पुरुषादानीया नराः । ते वीरा बन्धनोन्मुक्ताः, नावकाँक्षन्ति जीवितम ॥ अन्वयार्थ - (गिहे दीवमपासंता) गृहवास में ज्ञान का लाभ न देखते हुए (पुरिसादाणिया नरा) पुरुष मुमुक्षु पुरुषों के आश्रय लेने योग्य होते हैं (बंधणुम्मुक्का ते वीरा) बन्धन से मुक्त वे वीर पुरुष (जीवियं नावकखंति) असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं। 1. यस्य धृतिस्तस्य तपो यस्य तपस्तस्य सुगतिस्सुलभा । येऽधृतिमन्तः पुरुषास्तपोऽपि खलु दुर्लभं तेषाम् ।।१।। ४३९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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