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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ३१-३२
भावधर्ममध्ययन ___टीका - 'उराला' उदाराः शोभना मनोज्ञा ये चक्रवर्त्यादीनां शब्दादिषु विषयेषु कामभोगा वस्त्राभरणगीतगन्धर्वयानवाहनादयस्तथा आज्ञैश्वर्यादयश्च एतेषूदारेषु दृष्टेषु श्रुतेषु वा नोत्सुकः स्यात्, पाठान्तरं वा न निश्रितोऽनिश्रितःअप्रतिबद्धः स्यात. यतमानश्च संयमानुष्ठाने परि-समन्तान्मूलोत्तरगुणेषु उद्यम कुर्वन् 'व्रजेत' संयम गच्छेत् तथा 'चर्यायां' भिक्षादिकायाम् 'अप्रमत्तः स्यात्' नाहारादिषु रसगाध्यं विदध्यादिति, तथा 'स्पृष्टश्च' अभिद्रुतश्च परीषहोपसर्गेस्तत्रादीनमनस्कः कर्मनिर्जरां मन्यमानो 'विषहेत' सम्यक् सह्यादिति ॥३०॥
टीकार्थ - मन को हरण करनेवाले सुन्दर शब्दादि विषयों को उदार कहते हैं । शब्दादि विषयों में चक्रवर्ती आदि के काम-भोग तथा उनके वस्त्र, भूषण, गीत, गन्धर्व, यान, और वाहन आदि एवं आज्ञा और ऐश्वर्य आदि उदार (मनोहर) हैं । इनको देख या सुनकर साधु इनमें उत्कण्ठित न हो । अथवा पाठान्तर के अनुसार साधु अप्रतिबद्ध होकर रहे । साधु मूलगुण और उत्तर गुणों में उद्यमशील होता हुआ यत्नपूर्वक संयम पालन करे । वह भिक्षाचरी में प्रमाद न करे, वह आहार आदि में गृद्ध न हो । परीषह और उपसर्गों से पीड़ित होता हुआ साधु दीन न बने किन्तु कर्म की निर्जरा होती हुई जानकर अच्छी तरह सहन करे ॥३०॥
- परीषहोपसर्गाधिसहनमेवाधिकृत्याह
- अब शास्त्रकार परीषह और उपसर्गों के सहन के विषय में उपदेश करते हैंहम्ममाणो ण कुप्पेज्ज, वुच्चमाणो न संजले । सुमणे अहियासिज्जा, ण य कोलाहलं करे
॥३१॥ छाया - हव्यमानो न कुष्येत्, उच्यमानो न संन्वलेत् । सुमना अधिषहेत, न च कोलाहलं कुर्यात् ।।
अन्वयार्थ - (हम्ममाणो ण कुप्पेज्ज) लाठी आदि से मारा जाता हुआ साधु क्रोध न करे । (बुच्चमाणो न संजले) तथा किसी के गाली आदि देने पर साधु मन में न जले (सुमणे अहियासिज्जा) किन्तु प्रसन्नता के साथ इनको सहन करे (ण य कोलाहलं करे) हो हल्ला न करे।
भावार्थ- साधु को यदि कोई लाठी आदि से मारे या गाली देवे तो साधु प्रसन्नता के साथ सहन करता रहे परन्तु विपरीत वचन न बोले और हो हल्ला न करे । .
टीका - 'हन्यमानो' यष्टिमुष्टिलकुटादिभिरपि हतश्च 'न कुप्येत्' न कोपवशगो भवेत्, तथा दुर्वचनानि 'उच्यमानः' आक्रुश्यमानो निर्भय॑मानो 'न संज्वलेत्' न प्रतीपं वदेत्, न मनागपि मनोऽन्यथात्वं विदध्यात्, किन्तु सुमनाः सर्वं कोलाहलमकुर्वनधिसहेतेति ॥३१॥ किश्चान्यत्
टीकार्थ - साधु को यदि कोई लाठी मुक्का और डंडा आदि से ताड़न करे तो साधु क्रोध न करे तथा यदि कोई साधु को दुर्वचन कहे, गाली दे या तिरस्कार करे तो साधु प्रतिकूल वचन न बोले एवं अपने मन में दुर्विचार न करे किन्तु शान्त मन होकर हो हल्ला न करता हुआ सहन करे ॥३॥
लद्धे कामे ण पत्थेज्जा, विवेगे एवमाहिए । आयरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया
॥३२॥ छाया - लब्धान् कामान् न प्रार्थयेत्, विवेक एवमाख्यातः । भााणि शिक्षेत, बुद्धानामन्तिके सदा ॥
अन्वयार्थ - (लद्धे कामे ण पत्थेज्जा) मिले हुए काम भोग की साधु इच्छा न करे (एवं विवेगे आहिए) ऐसा करने पर विवेक प्रकट हो गया है, यह कहा जाता है (सया बुद्धाणं अंतिए) ऐसा करता हुआ साधु ज्ञानियों के पास सदा (आयरियाई सिक्खेज्जा) आर्यकर्म सीखे।
भावार्थ - साधु मिले हए काम भोगों की भी इच्छा न करे । ऐसा करने पर निर्मल विवेक साधु को उत्पन्न हो 1. एसमाहिए प्र०।
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