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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा २९-३०
भावधर्ममध्ययनं नन्नत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए । गामकुमारियं किडं, नातिवेलं हसे मुणी
॥२९॥ छाया - नान्यत्रान्तरायेण परगेहे न निषीदेत् । ग्रामकुमारिकां क्रीडां, नातिवेलं हसेन्मुनिः ॥
अन्वयार्थ - (नन्नत्थ अंतराएणं) अन्तराय के बिना साधु (परगेहे ण णिसीयए) गृहस्थ के घर में न बैठे (गामकुमारियं किहुं) तथा ग्राम के लड़कों का खेल साधु न खेले (नातिवेलं मुणी हसे) तथा साधु मर्यादा को छोड़कर न हैंसे ।
भावार्थ - साधु, किसी रोग आदि अन्तराय के बिना गृहस्थ के घर में न बैठे । तथा ग्राम के लड़कों का खेल न खेले एवं वह मर्यादा छोड़कर न हँसे ।
____टीका - तत्र साधुर्भिक्षादिनिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन् परो-गृहस्थस्तस्य गृहं परगृहं तत्र 'न निषीदेत्' नोपविशेत् उत्सर्गतः, अस्यापवादं दर्शयति-नान्यत्र 'अन्तरायेणे'ति अन्तरायः शक्त्यभावः, स च जरसा रोगातङ्काभ्यां स्यात, तश्चिान्तराये सत्युपविशेत् यदिवा-उपशमलब्धिमान् कश्चित्सुसहायो गुर्वनुज्ञातः कस्यचित्तथाविधस्य धर्मदेशनानिमित्तमुपविशेदपि, तथा ग्रामे कुमारका ग्रामकुमारकास्तेषामियं ग्रामकुमारिका काऽसौ ? 'क्रीडा' हास्यकन्दपहस्तसंस्पर्शनालिङ्गनादिका यदिवा वट्टकन्दुकादिका तां मुनिर्न कुर्यात्, तथा वेला-मर्यादा तामतिक्रान्तमतिवेलं न हसेत्, मर्यादामतिक्रम्य 'मुनिः' साधुः ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मबन्धनभयान हसेत्, तथा चागमः“जीवे णं भंते ! हसमाणे (चा) उस्सूयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?,
गोयमा !, सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा" इत्यादि ॥२९।। किञ्च
टीकार्थ - भिक्षा आदि के लिए ग्राम आदि में प्रवेश किया हुआ साधु गृहस्थ के घर में न बैठे । यह उत्सर्ग है । अब शास्त्रकार इसका अपवाद बताते हैं- शक्ति के अभाव को अन्तराय कहते हैं, वह वृद्धता तथा रोग से होता है। अतः ऐसे अन्तरायों के होने पर बैठे तो कोई दोष नहीं है । अथवा कोई साधु उपशमलब्धिवाला हो और उसका साथी अच्छा हो तथा गुरु ने उसे आज्ञा दी हो और किसी को धर्मोपदेश देना आवश्यक हो तो वह गृहस्थ के घर में बैठे तो कोई दोष नहीं है। तथा ग्राम में रहनेवाले कुमारों की क्रीडा को 'ग्राम कुमारिका' कहते हैं । वह काम उत्पादक हास्य करना, हाथ का स्पर्श करना तथा आलिङ्गन आदि करना है । वह साधु न करे। तथा ग्राम के लड़के जो गुली डंडा या गेंद आदि खेलते हैं । वह 'ग्राम कुमारिका' है। साधु वह खेल न खेले। तथा आठ प्रकार के कर्मों के बन्धन के भय से साधु मर्यादा को छोड़कर न हँसे । अत एव आगम कहता है कि
"हे भगवन् ! हँसता हुआ अथवा उत्सुक होता हुआ जीव कितनी कर्म प्रकृत्तियों को बाँधता है ? उत्तरहे गौतम? सात या आठ कर्म प्रकृत्तियों को बाँधता है ॥२९॥
अणुस्सओ उरालेसु, जयमाणो परिव्वए। चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थऽहियासए
॥३०॥ छाया - अनुत्सुक उदारेषु, यतमानाः परिव्रजेत् । चायामप्रमत्तः, स्पृष्टस्तत्राधिषहेत ॥
अन्वयार्थ - (उरालेसु) मनोहर शब्दादि विषयों में साधु (अणुस्सुओ) उत्कण्ठित न हो (जयमाणो परिव्वए) तथा यत्नपूर्वक संयम पालन करे (चरियाए अप्पमत्तो) तथा भिक्षाचरी आदि में प्रमाद न करे (पुट्ठो तत्थाऽहियासए) एवं परीषह और उपसर्गों से पीड़ित होता हुआ सहन करे।
भावार्थ - साधु मनोहर शब्दादि विषयों में उत्कण्ठित न हो किन्तु यत्नपूर्वक संयम पालन करे तथा भिक्षाचरी आदि में प्रमाद न करे एवं परीषह और उपसगों की पीड़ा होने पर सहन करे । 1. जीवो भदन्त ! हसन् उत्सुकायमानो वा कतीः कर्मप्रकृतीबंधाति, गौतम ? सप्तविधबन्धको वाऽष्टविधबंधको वा ।
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