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भावधर्ममध्ययनं
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा २८ सुनने में बुरा लगता है वह भी साधु सर्वथा न बोले ॥२७॥
- यदाश्रित्योक्तं नियुक्तिकारेण तद्यथा- "पासत्थोसण्णकुशील संथवो ण किल वट्टए काउं" तदिदमित्याह
- पहले जो नियुक्तिकार ने कहा है कि पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील के साथ परिचय कभी भी साधु को न करना चाहिए सो शास्त्रकार बतला रहे हैं । अकुसीले सया भिक्खू, णेव संसग्गिय भए । सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, पडिबुज्झेज्ज ते विऊ
॥२८॥ छाया - अकुशीलः सदा भिक्षुर्नेव संसर्गितां भजेत् । सुखरूपास्तत्रोपसर्गाः, प्रतिबुध्येत तद्विद्वान् ॥
अन्वयार्थ - (भिक्खू सया अकुसीले) साधु स्वयं कुशील न बने किन्तु सदा अकुशील बनकर रहे (णेव संसग्गियं भए) तथा वह कुशील यानी दुराचारियों की सङ्गति भी न करे (सुहरूवा तत्थुवसग्गा) क्योंकि कुशीलों की संगति में सुख रूप उपसर्ग रहता है (विऊ ते बुज्झेज्ज) अतः विद्वान् पुरुष उसे समझे।
भावार्थ - साधु स्वयं कुशील न बने और कुशीलों के साथ सङ्गति भी न करे क्योंकि कुशीलों की सङ्गति में सुख रूप उपसर्ग वर्तमान रहता है, यह विद्वान पुरुष जाने ।
टीका - कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः स च पार्श्वस्थादीनामन्यतमः न कुशीलोऽकुशीलः 'सदा' सर्वकालं भिक्षणशीलो भिक्षुः कुशीलो न भवेत्, न चापि कुशीलैः सार्धं 'संसर्ग साङ्गत्यं भजेत' सेवेत, तत्संसर्गदोषोद्विभावयिषयाऽऽह'सुखरूपाः' सातगौरवस्वभावाः 'तत्र' तस्मिन् कुशीलसंसर्गे संयमोपघातकारिण उपसर्गाः प्रादुष्यन्ति, तथाहि-ते कुशीला वक्तारो भवन्ति-कः किल प्रासुकोदकेन हस्तपाददन्तादिके प्रक्षाल्यमाने दोषः स्यात् ?, तथा नाशरीरो धर्मो भवति इत्यतो येन केनचित्प्रकारेणाधाकर्मसान्निध्यादिना तथा उपानच्छत्रादिना च शरीरं धर्माधारं वर्तयेत, उक्तं च"अप्पेण बहुमेसेज्जा, एयं पंडियलक्खणं" इति, तथा "शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीरात सवते धर्मः, पर्वतात्सलिलं यथा ||१||"
तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि अल्पधृतयश्च संयमे जन्तव इत्येवमादि कुशीलोक्तं श्रुत्वा अल्पसत्त्वास्तत्रानुषजन्तीति 'विद्वान्' विवेकी 'प्रतिबुध्येत' जानीयात् बुवा चापायरूपं कुशीलसंसर्ग परिहरेदिति ॥२८।। किञ्चान्यत्
टीकार्थ - जिसका आचरण बुरा है, उसे कुशील कहते हैं, वह पार्श्वस्थ आदि में कोई भी है। जो कुशील नहीं है, उसे अकुशील कहते हैं । भिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करनेवाला साधु स्वयं कुशील न बने और कुशील के साथ सङ्गति भी न करे । कुशीलों के संसर्ग से दोष उत्पन्न होता है, यह शास्त्रकार बतलाते हैं । कुशीलों के संसर्ग से संयम को नष्ट करनेवाला सुखभोग की इच्छारूप ठपसर्ग होता है। क्योंकि कुशील पुरुष कहते हैं कि "प्रासुक जल से हाथ पैर और दाँत आदि को धोने में क्या दोष है ? तथा शरीर के बिना धर्म नहीं होता है, इसलिए आधाकर्मी आहार खाकर भी तथा जूता और छत्ता धारणकर भी जिस किसी प्रकार धर्म के आधाररूप इस शरीर की रक्षा करनी चाहिए ।" कहा है कि
(अप्पेण) अर्थात् अल्प दोष से यदि ज्यादा लाभ मिलता हो तो उसे लेना चाहिए, यही विद्वान् का लक्षण है। तथा शरीर धर्म के सहित है, अतः यत्न के साथ उसकी रक्षा करनी चाहिए । जैसे पर्वत से पानी निकलता है, इसी तरह शरीर से धर्म उत्पन्न होता है ।
तथा कुशील पुरुष कहता है कि आजकल संहनन अल्प है और संयम में धीरता की अल्पता रखनेवाले जीव हैं" इत्यादि ऐसा कुशील पुरुष का कहना सुनकर अल्प पराक्रमी जीव, उसमें आसक्त हो जाते हैं । अतः विवेकी पुरुष, इसे जानकर दोषरूप कुशील संसर्ग को छोड़ देवे ॥२८॥ 1. अल्पेन बहु एषयेत् एतत् पण्डितलक्षणं । 2. पापं प्र० ।
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