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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा २६ भावधर्ममध्ययनं भावार्थ - जो साधु भाषा समिति से युक्त है, वह धर्म का उपदेश करता हुआ भी न बोलनेवाले के समान ही है । जिससे किसी को दुःख हो ऐसा वाक्य साधु न बोले । साधु कपटभरी बात न बोले किन्तु सोच विचार कर कुछ बोले । टीका यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासम्बन्धमभाषक एव स्यात्, उक्तं च"वयणविहत्तीकुसलो वओगयं बहुविहं वियाणंतो | दिवसंपि भासमाणो साहू वयगुत्तयं पत्तो ||१|| " यदिवा-यत्रान्यः कश्चिद्रत्नाधिको भाषमाणस्तत्रान्तर एव सश्रुतिकोऽहमित्येवमभिमानवान्न भाषेत, तथा मर्म गच्छतीति मर्मगं वचो न 'वंफेज्ज'त्ति नाभिलषेत्, यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यं वा सद्यस्य कस्यचिन्मनः पीडामाधत्ते द्विवेकीन भाषेति भावः, यदिवा 'मामकं' ममीकारः पक्षपातस्तं भाषमाणोऽन्यदा वा 'न वंफेज्जति' नाभिलषेत्, तथा 'मातृस्थानं' मायाप्रधानं वचो विवर्जयेत्, इदमुक्तं भवति-परवञ्चनबुद्धया गूढाचारप्रधानो भाषमाणोऽभाषमाणो वाऽन्यदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति यदा तु वक्तुकामो भवति तदा नैतद्वचः परात्मनोरुभयोर्वा बाधकमित्येवं प्राग्विचिन्त्य वचनमुदाहरेत्, तदुक्तम्- ""पुव्विं बुद्धीए पेहित्ता, पच्छा वक्कमुदाहरे" इत्यादि ॥ २५॥ अपि च टीकार्थ जो साधु भाषा समिति से युक्त है, वह धर्म कथा का उपदेश करता हुआ भी नहीं भाषण करनेवाले के समान ही है । जैसा कि कहा है (वयणविभत्ती) जो साधु वचन के विभाग को जानने में निपुण है तथा वाणी के विषय के बहुत भेद जानता है, वह दिनभर बोलता हुआ भी वचनगुप्ति से युक्त ही है । अथवा जहाँ कोई रत्नाधिक साधु कुछ बोल रहे हो उसके मध्य में ही " में बड़ा विद्वान हूं" इस अभिमान से युक्त होकर साधु न बोले । तथा मर्म को पीड़ित करनेवाला वचन साधु न बोले । आशय यह है कि झूठ हो या सत्य हो, जिस वचन के कहने से किसी के मन में पीड़ा उत्पन्न हो, ऐसा वचन विवेकी पुरुष न कहे। अथवा साधु भाषण करता हुआ या अन्य समय में पक्षपात पूर्ण वचन न कहे । एवं साधु माया प्रधान वचन न बोले । आशय यह है कि साधु दूसरे को ठगने के लिए छिपा हुआ आचार करनेवाला न बने, वह बोलते समय अथवा दूसरे समय माया ( कपट) न करे । जब साधु बोलना चाहे, तब वह पहले यह सोच ले कि "यह वचन अपने या दूसरे को अथवा दोनों को दुःखजनक तो नहीं है ?" पश्चात् वचन बोले । अत एव कहा है कि (पुव्वि) अर्थात् साधु पहले बुद्धि से सोच ले पीछे वचन बोले ||२५|| तत्थिमा तइया भासा जं वदित्ताऽणुतप्पती । जं छन्नं तं न वत्तव्वं, एसा आणा णियंठिया ॥२६॥ छाया - तत्रेयं तृतीया भाषा यामुक्त्वाऽनुतप्यते । यत् छनं तलवक्तव्यम् एषाऽऽज्ञा नैग्रन्थिकी | अन्वयार्थ - ( तत्थिमा तइया भासा) चार प्रकार की भाषाओं में जो तृतीय भाषा है अर्थात् जो झूठ से मिला हुआ सत्य है, वह साधु न बोले तथा (जं वदित्ताऽणुतप्पती) जिस वचन को बोलकर पश्चात्ताप करना पड़ता है, वह वचन भी न बोले (जं छन्नं तं न वत्तव्वं ) जिस बात को सब लोग छिपाते हैं, वह भी साधु न कहे ( एसा णियंठिया आणा ) यही निर्ग्रन्थ की आज्ञा है । भावार्थ - भाषायें चार प्रकार की हैं, उनमें झूठ से मिली हुई भाषा तीसरी है, वह साधु न बोले । तथा जिस वचन के कहने से पश्चात्ताप करना पड़े ऐसा वचन भी साधु न कहे । एवं जिस बात को सब लोग छिपाते हैं, वह भी साधु न कहे यही निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा है । टीका सत्या असत्या सत्यामृषा असत्यामृषेत्येवंरूपासु चतसृषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृषेत्येतदभिधाना तृतीया भाषा, सा च किञ्चिन्मृषा किञ्चित्सत्या इत्येवंरूपा, तद्यथा - दश दारका अस्मिन्नगरे जाता मृता वा, तदत्र न्यूनाधिकसम्भवे सति सङ्ख्याया व्यभिचारात्सत्यामृषात्वमिति, यां चैवंरूपां भाषामुदित्वा अनु-पश्चाद्भाषणाज्जन्मान्तरे वा 1. वचनविभक्तिकुशलो वचोगतं बहुविधं विजानन् । दिवसमपि भाषमाणः साधुर्वचनगुप्तिसंप्राप्तः ||१|| 2. तहावि द० अ० नि० । 3. न्यदा वा प्र० । 4. पूर्वं बुद्ध्या प्रेक्षयित्वा पश्चाद् वाक्यमुदाहरेत् । ४३३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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