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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा २४-२५
भावधर्ममध्ययनं 'इम' संयम 'निर्वहेत्' निर्वाहयेद् असारतामापादयेत्तथाविधमशनं पानं वाऽन्यद्वा तथाविधमनुष्ठानं न कुर्यात्, तथैतेषामशनादीनाम् 'अनुप्रदानं' गृहस्थानां परतीर्थिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं नानुशीलयेदिति, तदेतत्सर्वं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा सम्यक् परिहरेदिति ॥२३॥
टीकार्थ - जिस शुद्ध अन्न, जल से अथवा कारण की अपेक्षा से जिस अशुद्ध अन्न, जल से साधु इस जगत् में अपनी संयम यात्रा तथा दुर्भिक्ष और रोग, आतङ्क का निर्वाह करता है, वह अन्न, जल, द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव की अपेक्षा से साधु शुद्ध तथा कल्पनीय ग्रहण करे और वह वैसा ही अन्न, जल संयम का निर्वाह करने के लिए दूसरे साधु को देवे । अथवा जैसा कार्य करने से साधु का संयम खराब हो जाता है, वैसा अन्न, जल अथवा दूसरे कार्य्य साधु न करे । तथा अशुद्ध आहार आदि, जो संयम को नाश करनेवाला है, उसे किसी गृहस्थ को परतीर्थी को अथवा स्वयूथिक को न देवे । इन बातों को साधु संयम का विघातक जानकर त्याग करे ॥२३॥
- यदुपदेशेनैतत्सर्वं कुर्यात्तं दर्शयितुमाह
- पहले बताई हुई बातें जिसके उपदेश से करनी चाहिए, उस महापुरुष को दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं । एवं उदाहु निग्गंथे, महावीरे महामुणी। अणंतनाणदंसी से, धम्म देसितवं सुतं
॥२४॥ छाया - एवमुदाहृतवान् निर्ग्रन्थो, महावीरो महामुनिः । अनन्तहानदर्शनी स, थम देशितवान् श्रुतम् ॥
अन्वयार्थ - (निग्गंथे महामुणी) निग्रन्थ महामुनि (अर्थतनाणदंसी) अनन्तज्ञानी (से महावीरे) उस भगवान् महावीर स्वामी ने (एवं उदाहु) ऐसा कहा है (धम्म सुतं देसितवं) धर्म (चारित्र) और श्रुत का उन्होंने उपदेश किया है । __भावार्थ - अनन्त ज्ञान तथा दर्शन से युक्त एवं बाहर और भीतर की ग्रन्थिरहित महामुनि भगवान् महावीर स्वामी ने इस चारित्र तथा श्रुतरूप धर्म का उपदेश किया है ।
टीका - ‘एवम्' अनन्तरोक्तया नीत्या उद्देशकादेरारभ्य 'उदाहु'त्ति उदाहृतवानुक्तवान् निर्गतः सबाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्स निर्ग्रन्थो 'महावीर' इति श्रीमद्वर्धमानस्वामी महांश्चासौ मुनिश्च महामुनिः अनन्तं ज्ञानं दर्शनं च यस्यासावनन्तज्ञानदर्शनी स भगवान् 'धर्म' चारित्रलक्षणं संसारोत्तारणसमर्थं तथा 'श्रुतं च' जीवादिपदार्थसंसूचकं 'देशितवान्' प्रकाशितवान् ॥२४॥ किश्चान्यत्
टीकार्थ - बाहरी और भीतरी दोनों ही ग्रन्थि जिनकी नष्ट हो गयी है तथा अनन्त ज्ञान, दर्शन से जो युक्त हैं, ऐसे भगवान् महावीर स्वामी ने पूर्वोक्त धर्म जो उद्देशक के आदि से लेकर कहा गया है, उसका उपदेश किया है । उन्हीं भगवान् ने संसार से पार करने में समर्थ चारित्ररूप धर्म तथा जीवादि पदार्थी का उपदेशक शास्त्र भी कहा है ॥२४॥
भासमाणो न भासेज्जा, णेवं वंफेज्ज मम्मयं । मातिट्ठाणं विवज्जेज्जा, अणुचिंतिय वियागरे
॥२५॥ छाया - भाषमाणो न भाषेत, नेवाभिलषेन्मर्मगम् । मातृस्थानं विवर्जयेद, अनुचिन्त्य व्यागृणीयात् ॥
अन्वयार्थ - (भासमाणो न भासेज्जा) भाषा समिति से सम्पन्न साधु भाषण करता हुआ भी भाषण नहीं करता है (मम्मयं णेव) साधु किसी के हृदय को चोट पहुंचानेवाली बात न बोले (मातिट्ठाणं विवज्जेज्जा) साधु कपट भरी भाषा न बोले (अणुचिंतिय वियागरे) किन्तु सोच विचार कर बोले ।
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