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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा २२-२३ भावधर्ममध्ययनं (गंभीर) अर्थात् मॅचिया आदि आसनों के छिद्र गम्भीर होते हैं, इसलिए उनमें जीव प्रत्यक्ष दिखायी नहीं पड़ते हैं, इस कारण उनका प्रतिलेखन नहीं हो सकता है तथा घर के भीतर या दो घरों के बीच में बैठने से ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती है एवं स्त्रियों को शङ्का भी होती है। एवं गृहस्थ के घर का समाचार पूछना अथवा अपने अङ्गों को पोंछना, तथा पहले भोगे हुए सांसारिक विषयों का स्मरण करना, ये सब अनर्थ के लिए हैं, इसलिए वस्तुतत्त्व को जाननेवाला विद्वान् मुनि इन बातों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे ॥२१॥ जसं कित्तिं सलोयं च, जा य वंदणपूयणा । सव्वलोयंसि जे कामा, तं विज्जं परिजाणिया ॥२२॥ छाया - यशः कीर्तिः श्लोकश्च, या च वन्दना पूजना । सर्वलोके ये कामास्तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - (जसं कित्तिं सिलोयं च) यश, कीर्ति और श्लोक, (जा य वंदणपूयणा) तथा वन्दन और पूजन (सव्व लोगंसि जे कामा) तथा समस्त लोक में जो काम भोग है (तं विज्जं परिजाणिया) उन्हें विद्वान् मुनि संसार भ्रमण का कारण जानकर त्याग करे । भावार्थ - यश, कीर्ति, श्लाघा, वन्दन और पूजन तथा समस्त लोक के विषयभोग को संसार भ्रमण का कारण समझकर विद्वान् मुनि त्याग करे । ___टीका - बहुसमरसङ्घट्टनिर्वहणशौर्यलक्षणं यशः दानसाध्या कीर्तिः जातितपोबाहुश्रुत्यादिजनिता श्लाघा, तथा या च सुरासुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवादिभिर्वन्दना तथा तैरेव सत्कारपूर्विका वस्त्रादिना पूजना, तथा सर्वस्मिन्नपि लोके इच्छामदनरूपा ये केचन कामास्तदेतत्सर्वं यशः कीर्ति(श्लोकादिक) मपकारितया परिज्ञाय परिहरेदिति।।२२।। किञ्चान्यत् टीकार्थ - बड़ी लड़ाई में लड़कर विजय प्राप्त करने से जो जगत् में शूरता की प्रसिद्धि होती है, वह यश कहलाता है। तथा बहुत दान देने से जो प्रसिद्धि होती है, वह कीर्ति है एवं उत्तम जाति में जन्म लेने, तप करने, एवं शास्त्र पढ़ने से जो जगत् में प्रसिद्धि होती है, वह श्लाघा है । तथा देवेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव आदि जो नमस्कार करते हैं, वह वन्दना है, तथा वे जो सत्कार के सहित वस्त्र आदि देते हैं, वह पूजा है, तथा समस्त लोक में जितने काम भोग हैं, इन सभी यश, कीर्ति आदि को दुःखदायी समझकर साधु उनका त्याग करे ॥२२॥ जेणेहं णिव्वहे भिक्खू, अन्नपाणं तहाविहं । अणुप्पयाणमन्नेसिं, तं विज्जं परिजाणिया ॥२३॥ छाया - येनेह निर्वहेद् भिक्षुरखापानं तथाविधम् । अनुप्रदानमव्येषां, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - (इह) इस जगत् में (जेण) जिस अन्न और जल से (भिक्खू) साधू का संयम (णिव्वहे) खराब हो जाय (तहाविहं अन्नपान) वैसा अशुद्ध अन्न और जल (अन्नेसिं अणुप्पदानं) दूसरे साधु को देना (तं विज्जं परिजाणिया) संसार भ्रमण का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग करे । भावार्थ - इस जगत् में जिस अन्न या जल के ग्रहण करने से साधु का संयम नष्ट हो जाता है, वैसा अन्न, जल साधु दूसरे साधु को न देवे क्योंकि वह संसार भ्रमण का कारण है, अतः विद्वान् मुनि इसका त्याग करे । टीका - 'येन' अन्नेन पानेन वा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धेन कारणापेक्षया त्वशुद्धेन वा 'इह' अस्मिन् लोके इदं संयमयात्रादिकं दुर्भिक्षरोगातङ्कादिकं वा भिक्षुः निर्वहेत् निर्वाहयेद्वा तदन्नं पानं वा 'तथाविधं' द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया 'शुद्ध' कल्पं गृह्णीयात्तथैतेषाम्-अन्नादीनामनुप्रदानमन्यस्मै साधवे संयमयात्रानिर्वहणसमर्थमनुतिष्ठेत्, यदिवा-येन केनचिदनुष्ठितेन ४३१
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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