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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा २१ भावधर्ममध्ययनं टीका - परस्य-गृहस्थस्यामत्रं-भाजनं परामत्रं तत्र पुरःकर्मपश्चात्कर्मभयात् हृतनष्टादिदोषसम्भवाच्च अन्नं पानं च मुनिर्न कदाचिदपि भुञ्जीत, यदिवा-पतद्ग्रहधारिणश्छिद्रपाणेः पाणिपात्रं परपात्रं, यदिवा-पाणिपात्रस्याच्छिद्रपाणेर्जिनकल्पिकादेः पतद्ग्रहः परपात्रं तत्र संयमविराधनाभयान्न भुञ्जीत तथा परस्य-गृहस्थस्य वस्त्रं परवस्त्रं तत्साधुरचेलोऽपि सन् पश्चात्कर्मादिदोषभयात् हृतनष्टादिदोषसम्भवाच्च न बिभृयात्, यदिवा-जिनकल्पिकादिकोऽचेलो भूत्वा सर्वमपि वस्त्रं परवस्त्रमिति कृत्वा न बिभृयाद्, तदेतत्सर्व परपात्रभोजनादिकं संयमविराधकत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ।।२०।। तथा टीकार्थ - गहस्थ का पात्र साध के लिए परपात्र है। उसमें साध आहार न खाये और जल भी न पीये, क्योंकि गृहस्थ के पात्र में पहले या पीछे कच्चा पानी से धोये जाने, चोरी हो जाने एवं हाथ से गिर कर टुट जाने आदि का भय रहता है । अथवा स्थविरकल्पी साधु पात्र रखते हैं क्योंकि उनकी अञ्जलि छिद्रयुक्त होती है, इसलिए स्थविरकल्पी मुनि का अञ्जलिरूप पात्र भी परपात्र है अतः उसमें स्थविरकल्पी साधु आहार न खाये और जल न पीये । अथवा जिनकल्पी आदि मुनि पात्र नहीं रखते हैं, उनकी अञ्जलि ही उनका पात्र हैं, उनकी अञ्जलि छिद्ररहित होती है (इसलिए उसमें से कोई चीज गिरती नहीं है) अतः जिनकल्पी मुनि के लिए दूसरे पात्र परपात्र हैं, उनमें वे संयम की विराधना के भय से आहार न खाये और जल न पीये । एवं साधु वस्त्ररहित होते हुए भी, पहले या पीछे कच्चे जल से धोये जाने तथा चोरी हो जाने या फट जाने आदि के भय से गृहस्थ का वस्त्र न पहिनें। अथवा जिनकल्पी मुनि वस्त्ररहित होते हैं, उनके सभी वस्त्र पर वस्त्र है, इसलिए वे वस्त्र न पहने, इस प्रकार साधु परपात्र में भोजन आदि को संयम का विराधक समझकर त्याग करें ॥२०॥ आसंदी पलियंके य, णिसिज्जं च गिहतरे । संपुच्छणं सरणं वा, तं विज्ज परिजाणिया ॥२१॥ छाया - आसब्दी, पर्यश, निषधाश गृहान्तरे । संप्रश्नं स्मरणं वापि, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - (आसंदी पलियंके य) मैंचिया और पलँग (गिहतरे णिसिज्ज) तथा गृहस्थ के घर के भीतर बैठना (संपुच्छणं) गृहस्थ का कुशल पूछना (सरणं) तथा अपनी पहिली क्रीड़ा का स्मरण (तं विज्जं परिजाणिया) इनको विद्वान् मुनि संसारभ्रमण का कारण समझकर त्याग करे । भावार्थ- साधु मँचियापर न बैठे और पलँगपर न सोये एवं गृहस्थ के घर के भीतर या दो घरों के बीच में जो छोटी गली होती है, उसमें न बैठे एवं गृहस्थ का कुशल न पूछे तथा अपनी पहिली क्रीडा का स्मरण न करे । इन सभी बातों को संसार भ्रमण का कारण समझकर त्याग करे । टीका - 'आसन्दी' त्यासनविशेषः, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्सर्वोऽप्यासनविधिर्गृहीतः, तथा 'पर्यकः' शयनविशेषः, तथा गृहस्यातमध्ये गृहयोर्वा मध्ये निषद्यां वाऽऽसनं वा संयमविराधनाभयात्परिहरेत्, तथा चोक्तम्“गभीरझुसिरा एते, पाणा दुप्पडिलेहगा । अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संकणा ॥१॥" इत्यादि, तथा तत्र गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छनं आत्मीयशरीरावयवप्रच्छ (पुञ्छ) नं वा तथा पूर्वक्रीडितस्मरणं 'विद्वान्' विदितवेद्यः सन्ननायेति ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् ॥२१॥ अपिच टीकार्थ - आसन्दी, आसनविशेष को कहते हैं । यह उपलक्षण है इसलिए सभी आसनविधियों का इससे ग्रहण करना चाहिए । तथा शयनविशेष यानी पलँग को पर्याङ्क कहते हैं, तथा गृहस्थ के घर के भीतर या दो घरों के मध्य में सोना या बैठना, इन सभी को संयम की विराधना के भय से साधु त्याग देवे । जैसा कि कहा है1. गंभीरविजया इति द० अ० ६ गा० ५६ अप्रकाशाश्रया इति वृत्तिः । 2. एतानि गम्भीरच्छिद्राणि प्राणा दुष्प्रतिलेख्याः । अगुप्तिब्रह्मचर्यस्य स्त्रियो वापि शङ्कनं ॥१॥ ४३०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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