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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा १९-२०
भावधर्ममध्ययनं छाया - उपानही च छत्रश, नालिकं बालव्यजनम् । परिक्रियाचाऽन्योऽन्यं, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - (पाणहाओ य छत्तं य) जूता पहनना छत्ता लगाना (णालीयं वालवीयणं) जुआ खेलना पंखा से पवन करना, (अन्नमन्नं परकिरियं) तथा परस्पर की क्रिया ( तं विज्जं परिजाणिया) विद्वान् मुनि इनको कर्म बन्धन का कारण जानकर त्याग करे ।
भावार्थ - जूता पहनना, छत्ता लगाना, जुआ खेलना, पंखे से पवन करना, तथा जिसमें कर्मबन्ध हो ऐसी परस्पर की क्रिया, इनको कर्मबन्ध का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग करे ।
टीका - उपानहौ-काष्ठपादुके च तथा आतपादिनिवारणाय छत्रं तथा 'नालिका' द्यूतक्रीडाविशेषस्तथा वालैः मयूरपिच्छैर्वा व्यजनकं तथा परेषां सम्बन्धिनीं क्रियामन्योऽन्यं - परस्परतो ऽन्यनिष्पाद्यामन्यः करोत्यपरनिष्पाद्यां चापर इति, चः समुच्चये, तदेतत्सर्वं 'विद्वान्' पण्डितः कर्मोपादानकारणत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ||१८|| तथा
टीकार्थ
उपानह यानी लकड़ी का खडाऊं पहनना, तथा धूप की रक्षा के लिए छत्ता लगाना, एवं नालिका यानी एक प्रकार का जुआ खेलना, तथा मोर की पांख आदि का बना हुआ पंखा, एवं परस्पर की क्रिया जिसमें कर्मबन्ध होता है, इन सभी को संसार भ्रमण का कारण जानकर साधु त्याग करे
||१८||
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उच्चारं पासवणं, हरिएसु ण करे मुणी ।
वियडेण वावि साहट्टु, णावमज्जे (यमेज्जा) कयाइवि
॥१९॥
छाया - उच्चारं प्रस्रवणं हरितेषु न कुर्य्यामुनिः । विकटेन वाऽपि संहृत्य, नाचमेत कदाचिदपि ॥ अन्वयार्थ - (मुणी उच्चारं पासवणं हरिएसु ण करे) साधु हरी वनस्पतिवाले स्थान में टट्टी या पेशाब न करे (साहट्टु) बीज आदि को हटाकर (वियडेण वावि) अचित्त जल से भी ( कयाइवि) कदापि (णावमज्जे) आचमन न करे ।
भावार्थ - साधु हरी वनस्पतिवाले स्थान पर टट्टी या पेशाब न करे एवं बीज आदि हटाकर अचित्त जल से भी
आचमन न करे ।
टीका उच्चारप्रस्रवणादिकां क्रियां हरितेषूपरि बीजेषु वा अस्थण्डिले वा 'मुनि: ' साधुर्न कुर्यात्, तथा 'विकटेन' विगतजीवेनाप्युदकेन 'संहृत्य' अपनीयं बीजानि हरितानि वा 'नाचमेत' न निर्लेपनं कुर्यात्, किमुताविकटेनेतिभावः ||१९|| किञ्च
टीकार्थ विद्वान् मुनि, हरी वनस्पति के ऊपर तथा बीज के ऊपर अथवा अयोग्य स्थान में टट्टी या पेशाब न करे । तथा बीज या हरी वनस्पति को हटाकर अचित्त जल से भी आचमन न करे फिर सचित्त जल से करने की तो बात ही क्या है ? ||१९||
परमत्ते अन्नपाणं, ण भुंजेज्ज कयाइवि ।
परवत्थं अचेलोऽवि, तं विज्जं परिजाणिया
॥२०॥
छाया - परामत्रेऽलपानं, न भुञ्जीत कदाचिदपि । परवस्त्रमचेलोऽपि तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥
अन्वयार्थ - (परमत्ते अन्नपाणं कयाइवि ण भुंजेज्ज) दूसरे के पात्र में अर्थात् गृहस्थ के बर्तन में साधु अन्न या जल कभी भी न भोगे ( अचेलोऽपि परवत्थं) तथा वस्त्ररहित होने पर भी साधु गृहस्थ का वस्त्र न पहने (तं विज्जं परिजाणिया) साधु इन बातों को संसार भ्रमण का कारण जानकर त्याग करे ।
भावार्थ - साधु गृहस्थ के बर्तन में भोजन न करे तथा जल न पीये । एवं वस्त्ररहित होने पर भी साधु गृहस्थ का वस्त्र न पहिने | क्योंकि ये सब संसार भ्रमण के कारण हैं, इसलिए विद्वान् मुनि इनका त्याग करे ।
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