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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा १७-१८ भावधर्ममध्ययन मिथ्याशास्त्रगतसंशये वा प्रश्ने सति यथावस्थितार्थकथनद्वारेणायतनानि-निर्णयनानीति, तथा 'सागारिकः' शय्यातरस्तस्य पिण्डम्-आहारं, यदिवा-सागारिकपिण्डमिति सूतकगृहपिण्डं जुगुप्सितं वर्णापसदपिण्डं वा, चशब्दः समुच्चये, तदेतत्सर्वं विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥१६॥ किञ्चान्यत् टीकार्थ - असंयत पुरुषों के साथ सांसारिक बातों का विचार करना साधु छोड़ देवे। इसी तरह वह असंयम के अनुष्ठान का उपदेश न करे । एवं जिसने अपने मकान आदि की शोभा की है, उसके उस असंयमरूप अनुष्ठान की साधु प्रशंसा न करे । तथा साधु ज्योतिष सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर न देवे । अथवा लौकिक पुरुषों का परस्पर के व्यवहार में उनके मिथ्याशास्त्र के विषय में संशय होने पर अथवा उनके द्वारा प्रश्न किये जाने पर साधु उस शास्त्र की यथार्थ बातें बताकर निर्णय न करे । तथा शय्यातर का पिण्ड, अथवा सूतकवाले घर का पिण्ड, अथवा नीच के घर का पिण्ड, साधु न ले । उक्त बातों को साधु ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे ॥१६॥ अट्ठावयं न सिक्खिज्जा, वेहाईयं च णो वए । हत्थकम्मं विवायं च, तं विज्जं परिजाणिया ॥१७॥ छाया - अष्टापदं न शिक्षेत्, वेधातीतं च नो वदेत् । हस्तकर्म विवादं च, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - (अट्ठावयं न सिक्खिज्जा) साधु जुआ खेलने का अभ्यास न करे (वेहाईयं च नो वए) तथा जो बात धर्म से विरुद्ध है, वह न बोले (हत्थकम्म विवायं च) तथा हस्तकर्म और विवाद न करे (तं विज्जं परिजाणिया) साधु इन बातों को संसार भ्रमण का कारण जानकर त्याग करे । भावार्थ - साधु जुआ खेलने का अभ्यास न करे तथा अधर्मप्रधान वाक्य न बोले । एवं वह हस्तकर्म तथा विवाद न करे । इन बातों को संसार भ्रमण का कारण जानकर विद्वान् पुरुष त्याग करे । टीका - अर्यते इत्यर्थो-धनधान्यहिरण्यादिकः पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदं शास्त्रं अर्थार्थं चाणाक्यादिकमर्थशास्त्र तन्न 'शिक्षेत्' नाभ्यस्येत् नाप्यपरं प्राण्युपमर्दकारि शास्त्रं शिक्षयेत्, यदिवा-'अष्टापदं' द्यूतक्रीडाविशेषस्तं न शिक्षेत, नापि पूर्वशिक्षितमनुशीलयेदिति, तथा 'वेधो' धर्मानुवेधस्तस्मादतीतं सद्धर्मानुवेधातीतम्-अधर्मप्रधानं वचो नो वदेत् यदिवा-वेध इति वस्त्रवेधो द्यूतविशेषस्तद्गतं वचनमपि नो वदेद् आस्तां तावत्क्रीडनमिति, हस्तकर्म प्रतीतं, यदिवा 'हस्तकर्म' हस्तक्रिया परस्परं हस्तव्यापारप्रधानः कलहस्तं, तथा विरुद्धवाद विवादं शुष्कवादमित्यर्थः, चः समुच्चये, तदेतत्सर्वं संसारभ्रमणकारणं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत ॥१७॥ किञ्च टीकार्थ - जो उपार्जन किया जाता है, उसे अर्थ कहते हैं, वह धन, धान्य और हिरण्य आदि है, वह जिसके द्वारा प्राप्त होता है, उसको अर्थपद कहते हैं । अथवा धन उपार्जन के लिए जो शास्त्र है, उसको अर्थपद कहते हैं। वह चाणक्य आदि का बनाया हुआ अर्थशास्त्र है । साधु उस शास्त्र का अभ्यास न करे । तथा प्राणियों के घात की शिक्षा देनेवाले जो दूसरे शास्त्र हैं, उनका भी अभ्यास न करे । अथवा अष्टापद नाम जुआ खेलने का है, उसको साधु न सीखे तथा पहले सीखे हुए जुआ का अनुशीलन भी न करे । तथा धर्म के उल्लङ्घन को 'वेध' कहते हैं। जिससे धर्म का उल्लङ्घन हो ऐसा अधर्मप्रधान वाक्य साध न बोले । अथवा वेध यान जुआ की एक जाति है, उसका वचन भी साधु न बोले फिर खेलने की तो बात ही क्या है ?। तथा हस्तकर्म प्रसिद्ध है अथवा परस्पर हाथ से मारामारी करना तथा शुष्कवाद करना, (च शब्द समुच्चयार्थक है) इन बातों को साधु संसार भ्रमण का कारण जानकर त्याग करे ॥१७॥ पाणहाओ य छत्तं च, णालीयं वालवीयणं । परकिरियं अन्नमन्नं च, तं विज्जं परिजाणिया ॥१८॥ ४२८
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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