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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा १५-१६ भावधर्ममध्ययनं आसूणिमक्खिरागं च, गिद्धवघायकम्मगं । उच्छोलणं च कक्कं च, तं विज्जं परिजाणिया ॥१५॥ छाया - आशूनमक्षिरागं च, गृद्धथुपघातकर्मकम्, उच्छोलनं च कल्कं च, तद्विद्वान् परिजानीयात्- ||१५|| अन्वयार्थ - (आसुणिमक्खिरागं च) रसायन आदि खाकर बलवान् होना, तथा नेत्र में शोभा के लिए अञ्जन लगाना (गिद्धृवघायकम्मगं) तथा शब्दादि विषयों में आसक्त होना एवं जिस कर्म से जीवों का घात होता है, उसे करना, (उच्छोलणं च कक्कं च) अयत्नपूर्वक शीत पानी से हाथ पैर वगैरह धोना तथा शरीर में पिट्ठी लगाना (तं विजं परिजाणिया) इन सभी को विद्वान् मुनि संसार भ्रमण का कारण जानकर त्याग करे। भावार्थ - रसायन आदि का सेवन करके बलवान् बनना तथा शोभा के लिए आंख में अंजन लगाना, तथा शब्दादि विषयों में आसक्त होना, एवं जिससे जीवों का घात हो वह कर्म करना जैसे कि शीत पानी से अयत्नपूर्वक हाथ पैर आदि धोना तथा शरीर में पीट्ठी लगाना, इन बातों को संसार का कारण जानकर साधु त्याग करे ।। ___टीका - येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशूनः सन् आ-समन्तात् शूनीभवतिबलवानपजायते तदाशनीत्यच्यते. यदिवा आसणि त्ति-श्लाघा यतः श्लाघया क्रियमाणया आ-समन्तात शनवच्छनो लघुप्रकृतिः कश्चिद्दध्मातत्वात् स्तब्धो भवति, तथा अक्ष्णां 'रागो' रञ्जनं सौवीरादिकमञ्जनमिति यावत्, एवं रसेषु शब्दादिषु विषयेषु वा 'गृद्धिं' गाद्धय तात्पर्यमासेवा, तथोपघातकर्म-अपरापकारक्रिया येन केनचित्कर्मणा परेषां जन्तूनामुपघातो भवति तदुपघातकर्मेत्युच्यते, तदेव लेशतो दर्शयति-'उच्छोलनं'ति अयतनया शीतोदकादिना हस्तपादादिप्रक्षालनं तथा 'कल्क' लोध्रादिद्रव्यसमुदायेन शरीरोद्वर्तनकं तदेतत्सर्व कर्मबन्धनायेत्येवं 'विद्वान्' पण्डितो ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥१५॥ अपि च टीकार्थ - घृत पीना, अथवा रसायन का सेवन आदि जिस आहार विशेष के कारण मनुष्य बलवान् बनता है, उसको 'आशूनी' कहते हैं । अथवा आशूनी प्रशंसा को कहते हैं, क्योंकि तुच्छ प्रकृतिवाले जीव अपनी प्रशंसा हैं, क्योंकि तुच्छ प्रकृतिवाले जीव अपनी प्रशंसा सनकर घमण्ड से फूल जाते हैं। तथा शोभा के लिए आंख में सौवीरक आदि का अञ्जन लगाना, इसी तरह रसों में अथवा शब्दादि विषयों में आसक्त होना, एवं जिस क्रिया से प्राणियों का घात होता है, उसे उपघात कर्म कहते हैं, वह दूसरे का अपकार करना है, उस कर्म को करना, इसी बात को शास्त्रकार संक्षेप से बताते हैं । अयत्नपूर्वक शीत पानी (या उबाले हुए अचित्त जल से) से हाथ पैर आदि धोना, तथा लोध्र आदि द्रव्यों की पिट्ठी बनाकर, उसका शरीर में लेप करना, ये सब कार्य कर्मबन्ध के कारण हैं, इसलिए विद्वान् मुनि इन्हें जानकर त्याग करे ॥१५॥ संपसारी कयकिरिए, पसिणायतणाणि य । सागरियं च पिंडं च, तं विज्जं परिजाणिया ॥१६॥ छाया - सम्प्रसारी कृतक्रियः प्रश्नायतनानि च । सागारिकं च पिण्डं च, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - (संपसारी) असंयतों के साथ साधु संसार की बातें न करे (कयकिरिए) तथा असंयम के अनुष्ठान की प्रशंसा न करे (पसिणायतणाणि य) तथा ज्योतिष के प्रश्नों का उत्तर न दे (सागारियं च पिंडं च) शय्यातर पिंड न ले (तं विज्ज परिजाणिया) साधु इन बातों को संसार का कारण जानकर त्याग करे । भावार्थ- असंयतों के साथ सांसारिक वार्तालाप करना तथा असंयम के अनुछान की प्रशंसा करना, एवं ज्योतिष के प्रश्रों का उत्तर देना तथा शय्यातर का पिण्ड लेना, इन बातों को संसारभ्रमण का कारण जानकर साधु त्याग करे । टीका - असंयतैः सार्धं सम्प्रसारणं-पर्यालोचनं परिहरेदिति वाक्यशेषः, एवमसंयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशदानं, तथा 'कयकिरिओ' नाम कृता शोभना गृहकरणादिका क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवमसंयमानुष्ठानप्रशंसनं, तथा प्रश्नस्यआदर्शप्रश्नादेः 'आयतनम्' आविष्करणं कथनं यथाविवक्षितप्रश्ननिर्णयनानि, यदिवा-प्रश्नायतनानि लौकिकानां परस्परव्यवहारे ४२७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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