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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा १३-१४ गंधमल्लसिणाणं च, दंतपक्खालणं तहा । परिग्गहित्थिकम्मं च तं विज्जं परिजाणिया
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।।१३॥
छाया - गन्धमाल्यस्नानानि, दन्तप्रक्षालनं तथा । परिग्रहस्त्रीकर्माणि तद् विद्वान् परिजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - (गंधमल्लसिणाणं च ) शरीर में गन्ध लगाना तथा फूलमाला पहिनना एवं स्नान करना ( तहा दंतपक्खालणं) तथा दांतों को धोना (परिग्गहित्थिकम्मं च) परिग्रह रखना, स्त्रीभोग करना तथा हस्तकर्म करना (तं विज्जं परिजाणिया) विद्वान् मुनि इनको पाप का कारण जानकर त्याग करे ।
भावार्थ - गन्ध, फूलमाला, स्नान, दांतों को धोना, परिग्रह रखना, स्त्रीसेवन करना, हस्तकर्म करना, इनको पाप का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग करे ।
टीका 'गन्धाः ' कोष्ठपुटादयः 'माल्यं' जात्यादिकं 'स्नानं च' शरीरप्रक्षालनं देशतः सर्वतश्च तथा 'दन्तप्रक्षालनं' कदम्बकाष्ठादिना तथा 'परिग्रहः' सचित्तादेः स्वीकरणं तथा स्त्रियो- दिव्यमानुषतैरश्चयः तथा 'कर्म' हस्तकर्म सावद्यानुष्ठानं वा तदेतत्सर्वं कर्मोपादानतया संसारकारणत्वेन परिज्ञाय विद्वान् परित्यजेदिति ॥१३॥ किञ्चान्यत्
भावधर्ममध्ययनं
टीकार्थ- कोष्ठपुट आदि गन्ध (आजकल इत्तर सेन्ट वगैरह ) चमेली आदि फूलों की माला तथा स्नान यानी शरीर के थोड़े भाग को या सर्व शरीर को धोना, तथा कदम्ब आदि की लकडी से दांत धोना, एवं सचित्त आदि पदार्थो का परिग्रह करना तथा देवता, मनुष्य या तिर्य्यञ्च जाति की स्त्रियों से मैथुन करना, एवं हस्तकर्म करना अथवा और जो सावद्य अनुष्ठान हैं, उनको कर्मबन्ध तथा संसार का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग करे ||१३||
उद्देसि कीयगडं, पामिच्चं चेव आहडं ।
पूयं अणेसणिज्जं च तं विज्जं परिजाणिया
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छाया - उद्देशिकं क्रीतक्रीतं, पामित्यं चैवाहृतम् । पूयमनेषणीयश, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥
अन्वयार्थ - (उद्देसियं) साधु को देने के लिए जो आहार आदि तैयार किया गया है (कीयगडं) तथा साधु के लिए जो खरीद किया गया है ( पामिच्च) एवं साधु को देने के लिए जो दूसरे से उधार लिया गया हैं ( आहडं) तथा साधु को देने के लिए जो गृहस्थों के द्वारा लाया हुआ है (पूर्व) जो आधाकर्मी आहार से मिला हुआ है (अणेसणिज्जं) तथा जो आहार आदि दोष से युक्त अशुद्ध है (विज्जं तं परिजाणिया ) विद्वान् मुनि इन सभी को संसार का कारण जानकर निःस्पृह होकर त्याग करे ।
भावार्थ - साधु को दान देने के लिए जो आहार वगैरह तैयार किया गया है तथा जो मोल लिया गया है एवं गृहस्थ साधु को देने के लिए जो आहार आदि लाया है तथा जो आधाकर्मी आहार से मिश्रित है । इस प्रकार जो आहार आदि किसी भी कारण से दोष युक्त है, उसको संसार का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग करे ।
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टीका साध्वाद्युद्देशेन यद्दानाय व्यवस्थाप्यते तदुद्देशिकं, तथा 'क्रीतं' क्रयस्तेन क्रीतं - गृहीतं क्रीतक्रीतं 'पामिच्वं' ति साध्वर्थमन्यत उद्यतकं यद्गृह्यते तत्तदुच्यते, चकारः समुच्चयार्थः एवकारोऽवधारणार्थः, साध्वर्थं यद्गृहस्थेनानीयते तदाहृतं, तथा 'पूय' मिति आधाकर्मावयवसम्पृक्तं शुद्धमप्याहारजातं पूति भवति, किं बहुनोक्तेन ?, यत् केनचिद्दोषेणानेषणीयम् - अशुद्धं तत्सर्वं विद्वान् परिज्ञाय संसारकारणतया निःस्पृहः सन् प्रत्याचक्षीतेति ॥१४॥ किञ्च -
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टीकार्थ साधु आदि को देने के लिए जो आहार रखा जाता है, उसको उद्देशिक कहते हैं । खरीदे हुए आहार आदि को क्रीत कहते हैं । एवं साधु को देने के लिए जो आहार दूसरे से उधार लिया गया है, उसको 'पामित्य' कहते हैं । ( चकार समुच्चयार्थक हैं, एवकार अवधारणार्थक है) तथा साधु को देने के लिए गृहस्थ के द्वारा जो आहार लाया गया है, वह 'आहत' कहा जाता है तथा आधाकर्मी आहार के एक कण से युक्त होने पर शुद्ध भी आहार अशुद्ध हो जाता है, इसलिए ऐसे आहार को 'पूत' कहते हैं, और कहां तक कहें, किसी भी दोष से जो आहार दूषित हो गया है, उसको संसार का कारण समझकर निःस्पृह विद्वान् मुनि त्याग करे ||१४||