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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा १२ भावधर्ममध्ययनं तथा उच्छ्रायं-मानं, विचित्रत्वात् सूत्रस्य क्रमोल्लङ्घनेन निर्देशो न दोषायेति, यदिवा-रागस्य दुस्त्यजत्वात् लोभस्य च मायापूर्वकत्वादित्यादावेव मायालोभयोरुपन्यास इति, कषायपरित्यागे विधेये पुनरपरं कारणमाह-एतानि पलिकुञ्चनादीनि अस्मिन् लोके आदानानि वर्तन्ते, तदेतद्विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत ॥११॥ टीकार्थ - जिससे मनुष्य की क्रिया पूर्णरूप से टेढ़ी हो जाती है, उसे 'पलिकुञ्चन' कहते हैं । वह माया है। जिससे आत्मा सर्वत्र झुक जाता है, उसे 'भजन' कहते हैं। वह लोभ है। जिसके उदय से आत्मा सत् और असत् के विवेक से हीन होकर स्थण्डिल के समान हो जाता है, वह स्थण्डिल कहलाता है, वह क्रोध है । तथा जिसके होने से जीव उत्तान हो जाता है, उसे उच्छाय कहते हैं, वह जाति आदि के द्वारा उत्पन्न मान है। मान शब्द वस्तुतः पुंलिङ्ग है तथापि छन्द होने के कारण यहां नपुंसक लिङ्ग हुआ है । जाति आदि मद के स्थान बहुत होते हैं, इसलिए यहां बहुवचन हुआ है । चकार स्वगत भेद को सूचित करने के लिए है अथवा वह समुच्चयार्थक है। यहां धूनय (त्यागकरो) इस क्रिया का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध करना चाहिए। जैसेकि (हे शिष्य !) तुम माया को छोड़ो, लोभ को छोड़ो इत्यादि । यहां माया, लोभ, क्रोध, और मान इस प्रकार जो क्रम का उल्लंघन करके कषायों का निर्देश किया है, सो सूत्र की :विचित्रता के कारण दोष नहीं है । अथवा राग दुस्त्यज होता है और लोभ मायापूर्वक ही होता है, इसलिए पहले ही माया और लोभ का निर्देश किया है। कषायों के त्याग में शास्त्रकार दूसरा कारण भी बताते हैं-ये माया आदि लोक में कर्म-बन्ध के कारण हैं, अतः इसे जानकर विद्वान् पुरुष इनका त्याग करे ॥१॥ - पुनरप्युत्तरगुणानधिकृत्याह - पुनः शास्त्रकार उत्तरगुणों के विषय में कहते हैंधोयणं रयणं चेव, बत्थीकम्मं विरेयणं । वमणंजण पलीमंथं,तं विज्जं परिजाणिया ।।१२।। छाया - थावनं रचनचैव, बस्तिकर्म विरेचनम् । वमनानं पलिमब्धं, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥ अन्वयार्थ - (धोयणं) हाथ, पैर तथा वस्त्र आदि धोना (रयणं) तथा उनको रंगना (बत्थीकम्मं विरेयणं) बस्तिकर्म करना और विरेचन (वमणंजण) दवा लेकर वमन करना तथा आँखों में अबन लगाना (पलिमंथं) इत्यादि संयम को नष्ट करनेवाले कार्यों को (विज्जं परिजाणिया) विद्वान् पुरुष जानकर त्याग करे । भावार्थ - हाथ, पैर धोना, और ठनको रंगना एवं बस्तिकर्म, विरेचन, वमन और नेत्र में अञ्जन लगाना ये सब संयम को नष्ट करनेवाले हैं, इसलिए विद्वान् मुनि इनका त्याग करे । टीका - धावनं-प्रक्षालनं हस्तपादवस्त्रादे, रञ्जनमपि तस्यैव, चकारः, समुच्चयार्थः, एवकारोऽवधारणे, तथा बस्तिकर्म-अनुवासनारूपं तथा 'विरेचनं निरूहात्मकमधोविरेको वा वमनम्-ऊर्ध्वविरेकस्तथाऽञ्जनं नयनयोः, इत्येवमादिकमन्यदपि शरीरसंस्कारादिकं यत् 'संयमपलिमन्थकारि' संयमोपघातरूपं तदेतद्विद्वान् स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाय प्रत्याचक्षीत ॥१२॥ अपि च टीकार्थ - हाथ, पैर और वस्त्र आदि को धोना और उनको रंगना, (चकार समुच्चयार्थक है) (एवकार अवधारणार्थक है) बस्तिकर्म अर्थात् एनिमा लेना इत्यादि, तथा जुलाब लेना एवं दवा लेकर वमन करना, और आंख में अञ्जन लगाना इन सभी को तथा दूसरे भी शरीर. संस्कार आदि जो संयम के विघातक हैं, उनके स्वरूप और फल को जानकर विद्वान् मुनि त्याग करे ॥१२॥ 1. निरूहो निचिते तर्के बस्तिभेदे इति हैमः । २५
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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