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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा १०-११
भावधर्ममध्ययनं - शेषव्रतान्यधिकृत्याह
- अब शास्त्रकार शेष व्रतों के विषय में कहते हैंमुसावायं बहिद्धं च, उग्गहं च अजाइया । सत्थादाणाई लोगंसि, तं विज्जं परिजाणिया
॥१०॥ छाया - मृषावादं मैथुनचावग्रहशायाचितम् । शस्त्राण्यादानानि लोके, तद्विद्वान् परिजानीयात् ॥
अन्वयार्थ - (मुसावायं) झूठ बोलना, (बहिद्धं च) मैथुन सेवन करना, (उग्गह) परिग्रह करना (अजाइया) तथा अदत्तादात लेना (लोगंसि सत्थादाणाई) ये सब लोक में शस्त्र के समान और कर्मबन्ध के कारण है (विज्ज तं परिजाणिया) विद्वान् ज्ञपरिज्ञा से इन्हें जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे।
भावार्थ - झूठ बोलना, मैथुन सेवन करना, परिग्रह ग्रहण करना, और अदत्तादान लेना ये सब लोक में शस्त्र के समान और कर्मबन्ध के कारण है इसलिए विद्वान् मुनि इन्हें ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे ।
टीका - मृषा असद्भूतो वादो मृषावादस्तं विद्वान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् तथा 'बहिद्धं ति मैथुनं 'अवग्रहं' परिग्रहमयाचितम्-अदत्तादानं, [ग्रं० ५२५०] यदिवा बहिद्धमिति-मैथुनपरिग्रही अवग्रहमयाचितमित्यनेनादत्तादानं गृहीतं, एतानि च मृषावादादीनि प्राण्युपतापकारित्वात् शस्त्राणीव शस्त्राणि वर्तन्ते । तथाऽऽदीयते-गृह्यतेऽष्टप्रकार कर्मेभिरिति (आदानानि) कर्मोपादानकारणान्यस्मिन् लोके, तदेतसर्वं विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥१०॥ किश्चान्यत्- ।
टीकार्थ - झूठ बोलने को 'मृषावाद' कहते हैं, उसको विद्वान् मुनि प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे । तथा मैथुन को 'बहिद्ध' कहते हैं, और परिग्रह को 'अवग्रह' कहते हैं एवं अदत्तादान को अयाचित कहते हैं अथवा बहिद्ध पद से मैथुन और परिग्रह दोनों लिये जाते हैं और अवग्रह तथा अयाचित पद से अदत्तादान लिया जाता है। ये पूर्वोक्त मृषावाद आदि प्राणियों को पीड़ा देने के कारण शस्त्र के समान हैं तथा आठ प्रकार के कर्मबन्ध के कारण हैं । अतः विद्वान् पुरुष इन बातों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे ॥१०॥
- पञ्चमहाव्रतधारणमपि कषायिणो निष्फलं स्यादतस्तत्साफल्यापादनार्थं कषायनिरोधो विधेय इति दर्शयति
- जिस पुरुष में कषाय है, उसका पञ्च महाव्रत धारण करना व्यर्थ है, इसलिए पञ्च महाव्रत को सफल करने के लिए कषाय को रोकना चाहिए । यह शास्त्रकार दिखलाते हैंपलिउंचणं च भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि या। धूणादाणाई लोगंसि, तं विज्जं परिजाणिया
॥११॥ छाया - पलिकुञ्चनच भजनश, स्थण्डिलोच्छयणाणि च । धूनयादानानि लोके, तद्विद्वान् परिजानीयात् ।।
अन्वयार्थ - (पलिउंचणं च) माया (भयणं च) और लोभ, (थंडिल्लुस्सयणाणि य) क्रोध और मान को (धूण) त्याग करो (लोगसि आदाणाई) क्योंकि ये सब लोक में कर्मबन्ध के कारण है (विज्जं तं परिजाणिया) विद्वान् मुनि इन्हें जानकर त्याग करे ।
भावार्थ - माया, लोभ, क्रोध और मान, संसार में कर्मबन्ध के कारण हैं, इसलिए विद्वान् मुनि इनका त्याग करे।
टीका - परि-समन्तात् कुञ्च्यन्ते-वक्रतामापाद्यन्ते क्रिया येन मायानुष्ठानेन तत्पलिकुञ्चनं मायेति भण्यते, तथा भज्यते सर्वत्रात्मा प्रह्वीक्रियते येन स भजनो-लोभस्तं, तथा यदुदयेन ह्यात्मा सदसद्विवेकविकलत्वात् स्थण्डिलवद्भवति स स्थण्डिल:-क्रोधः, यस्मिंश्च सत्यूचं श्रयति जात्यादिना दर्पाध्मातः पुरुष उत्तानीभवति स उच्छ्रायो-मानः, छान्दसत्वानपुंसकलिङ्गता, जात्यादिमदस्थानानां बहुत्वात् तत्कार्यस्यापि मानस्य बहुत्वमतो बहुवचनं, चकाराः स्वगतभेदसंसूचनार्थाः समुच्चयार्था वा, धूनयेति प्रत्येक क्रिया योजनीया, तद्यथा-पलिकुञ्चनं-मायां धूनय धूनीहि वा, तथा भजनं-लोभं, तथा स्थण्डिलं-क्रोधं,
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