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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ९ भावधर्ममध्ययनं छाया - पृथिवीत्वनिवायुस्तृणवृक्षाः सबीजकाः । अण्डजाः पोतजरायुजाः, रससंस्वेदोद्भिज्जाः || अन्वयार्थ - ( पुढवी, अगणी, वाऊ तणरूक्ख सबीयगा) पृथिवी, अग्नि, वायु, वृक्ष और बीज ( अंडया पोयजराऊ) अण्डज पोत तथा जरायुज ( रससंसेयउमिया) रसज, स्वेदज और उद्भिज्ज (ये सब जीव हैं) भावार्थ - पृथिवी, अग्नि, वायु, तृण, वृक्ष, बीज, अण्डज, पोत, जरायुज, रसज, स्वेदज, और उद्भिज्ज ये सब जीव हैं । टीका तत्र पृथिवीकायिकाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्नाः तथाऽपकायिका अग्निकायिका वायुकायिकाश्चैवम्भूता एव, वनस्पतिकायिकान् लेशतः सभेदानाह - 'तृणानि' 'कुशवच्चकादीनि, 'वृक्षा:' चूताशोकादिकाः, सह बीजैर्वर्तन्त इति सबीजा:, बीजानि तु शालिगोधूमयवादीनि, एते एकेन्द्रियाः पञ्चापि कायाः षष्ठत्रसकायनिरूपणायाहअण्डाज्जाता अण्डजाः- शकुनिगृहकोकिलसरीसृपादयः, तथा पोता एव जाताः पोतजा - हस्तिशरभादय:, तथा जरायुजा ये जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते गोमनुष्यादयः, तथा रसात् - दधिसौवीरकादेर्जाता रसजास्तथा संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजायूकामत्कुणादय:, 'उद्भिज्जाः' खञ्जरीटकदर्दुरादय इति, अज्ञातभेदा हि दुःखेन रक्ष्यन्त इत्यतो भेदेनोपन्यास इति ॥८॥ टीकार्थ पृथिवीकाय के जीव, सूक्ष्म, बादर, पर्य्याप्त और अपर्य्याप्त भेद से पृथक्-पृथक् हैं, इसी तरह जलकाय के जीव, अग्निकाय के जीव और वायुकाय के जीव भी पृथवीकाय के जीव के समान ही भेदवाले हैं। अब शास्त्रकार संक्षेप से वनस्पतिकाय के जीवों का भेद बताते हैं-कुश और वच्चक आदि तृण तथा आम और अशोक आदि वृक्ष, तथा शालि, गेहूं और यव आदि बीज, ये पाँच ही जीवकाय एकेन्द्रिय हैं । अब शास्त्रकार छट्ठा काय का निरूपण करने के लिए कहते हैं-अण्डे से उत्पन्न होनेवाले शकुनि, गृहकोकिल, और सरीसृप आदि प्राणी अण्डज हैं । तथा बच्चे के रूप में पैदा होनेवाले हाथी और शरभ आदि पोतज हैं। एवं जम्बाल से वेष्ठित होकर उत्पन्न होनेवाले गाय और मनुष्य आदि जरायुज हैं, तथा दही और सौवीर आदि से उत्पन्न होनेवाले प्राणी रसज हैं एवं स्वेद से उत्पन्न होनेवाले यूक और खटमल आदि प्राणी स्वेदज हैं, तथा खञ्जरीट टिड्डी और मेढ़क आदि प्राणी उद्भिज्ज हैं। इनका भेद जाने बिना इनकी रक्षा दुःख से होगी, इसलीए यहां भेद करके बताया है ॥८॥ - - तेहिं छहिं काहिं, तं विज्जं परिज़ाणिया । मणसा कायवक्वेणं, णारंभी ण परिग्गही 11811 छाया - एतैः षड्भिः कायैस्तद् विद्वान् परिजानीयात् । मनसा कायवाक्येन नारम्भी न परिग्रही ॥ अन्वयार्थ - (विज्जं ) विद्वान् पुरुष ( एतेहिं छहिं काएहिं ) इन छही कायों का आरम्भ न करे किन्तु ( तं परिजाणिया) इन्हें जीव जाने ( मणसाकायवणं) और मन, वचन तथा काय से (णारम्भी न परिग्गही) आरम्भ और परिग्रह न करे । भावार्थ - विद्वान् पुरुष पूर्वोक्त इन छःही कार्यों को जीव समझकर मन, वचन और काय से इनका आरम्भ और परिग्रह न करे । टीका - 'एभि:' पूर्वोक्तैः षड्भिरपि 'कायैः' त्रसस्थावररूपैः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्नैर्नारम्भी नापि परिग्रही स्यादिति सम्बन्धः, तदेतद् 'विद्वान्' सश्रुतिको ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञया मनोवाक्कायकर्मभिर्जीवोपमर्दकारिणमारम्भं परिग्रहं च परिहरेदिति ॥९॥ - टीकार्थ ये पूर्वोक्त छः काय के जीव, जो त्रस और स्थावररूप तथा सूक्ष्म, बादर, पर्य्याप्त, और अपर्याप्त भेदवाले हैं, इनका आरम्भ न करे और परिग्रह भी न करे यह सम्बन्ध है । विद्वान् पूरुष ज्ञपरिज्ञा से इन्हें जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से मन, वचन और काय के द्वारा जीवों का घात करनेवाले आरम्भ और परिग्रह को वर्जित करे || ९ || 1. बन्धका० प्र० । ४२३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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