________________
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ७-८
भावधर्ममध्ययनं चिच्चा वित्तं च पुत्ते य, णाइओ य परिग्गहं । चिच्चा ण णंतगं सोयं, निरवेक्खो परिव्वए
॥७॥ छाया - त्यत्क्वा वित्तच पुत्रांच, ज्ञातीच परिग्रहम् । त्यक्त्वाऽन्तगं शोकं, निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥
अन्वयार्थ - (वित्तं च पुत्ते य) धन और पुत्रों को (णाइओ य परिग्गह) तथा ज्ञाति वर्ग और परिग्रह को (चिच्चा) त्यागकर (अंतगं सोयं च चिच्चा) तथा भीतर के ताप को छोड़कर (निरवेक्खो परिव्वए) मनुष्य निरपेक्ष होकर संयम का अनुष्ठान करे।
भावार्थ - धन, पुत्र, ज्ञाति, परिग्रह और आन्तरिक शोक को छोड़कर मनुष्य संयम का पालन करे ।
टीका - संसारस्वभावपरिज्ञानपरिकर्मितमतिर्विदितवेद्यः सम्यक् 'त्यक्त्वा' परित्यज्य किं तद् ?-'वित्तं' द्रव्यजातं पुत्रांश्च त्यक्त्वा, पुढेष्वधिकः स्नेहो भवतीति पुत्रग्रहणं, तथा 'ज्ञातीन्' स्वजनांश्च त्यक्त्वा तथा परिग्रह' चान्तरममत्वरूपं णकारो वाक्यालङ्कारे अन्तं गच्छतीत्यन्तगो दुष्परित्यज इत्यर्थः अन्तको वा विनाशकारीत्यर्थः आत्मनि वा गच्छतीत्यात्मग आन्तर इत्यर्थः तं तथाभूतं 'शोक' संतापं 'त्यक्त्वा' परित्यज्य, श्रोतो वा-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायात्मकं कर्माश्रवद्वारभूतं परित्यज्य पाठान्तरं वा-'चिच्चा णऽणंतगं सोयं' अन्तं गच्छतीत्यन्तगं न अन्तगमनन्तगं श्रोतः शोकं वा परित्यज्य 'निरपेक्षः' पुत्रदारधनधान्यहिरण्यादिकमनपेक्षाणः सन् आमोक्षाय परि-समन्तात् संयमानुष्ठाने 'व्रजेत्' परिव्रजेदिति, तथा चोक्तम्"छलिया अवयक्खंता निरावयक्खा गया अविग्घेणं' । तम्हा पवयणसारे निरावयक्खेण होयव्वं||१|| "भोगे अवयक्खंता पडंति संसारसागरे घोरे । भोगेहि निरवयक्खा तरंति संसारकंतारं ||२||"
इति ॥७॥
टीकार्थ - संसार के स्वभाव को जानने से शुद्ध बुद्धिवाला तथा जानने योग्य पदार्थ को जाननेवाला पुरुष अच्छी तरह से छोड़कर, (प्रश्न) क्या छोड़कर ? (उत्तर) द्रव्यसमूह को तथा पुत्रों को छोड़कर (पुत्रों में अधिक स्नेह होता है, इसलिए पुत्र का ग्रहण किया है) तथा ज्ञातियों को छोड़कर एवं अन्दर के ममत्वरूप परिग्रह को छोड़कर (ण शब्द वाक्यालङ्कार में आया है) एवं जो दुःख से छोड़ा जाता है अथवा जो विनाश करनेवाला है अथवा जो आत्मा के भीतर रहता है, उस सन्ताप को छोड़कर अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय स्वरूप जो कर्म के आश्रवद्वार है, उन्हें छोड़कर अथवा (चिच्चाणऽणंतगं सोयं) इस पाठान्तर के अनुसार जिसका अन्त कभी नहीं होता है, उस श्रोत या शोक को छोड़कर साधु पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, और हिरण्य आदि की अपेक्षा नहीं करता हुआ मोक्ष की प्राप्ति के लिए संयम का अनुष्ठान करे । अत एव कहा है कि
(छलिया) अर्थात् जिन्होंने परिग्रह आदि में ममता रखी वे ठगे गये परन्तु जो निरपेक्ष रहे वे निर्विघ्न संसार सागर को तर गये अतः प्रवचन के सिद्धान्त को जाननेवाला पुरुष निरपेक्ष होकर रहे ॥७॥
(भोगे) भोगों की अपेक्षा रखनेवाले व्यक्ति घोर संसार सागर में पड़ते है । भोगों से निरपेक्ष जीव संसार रूपी अटवी को पार कर सकते है।
- स एवं प्रव्रजितः सुव्रतावस्थितात्माऽहिंसादिषु व्रतेषु प्रयतेत, तत्राहिंसाप्रसिद्धयर्थमाह-'पुढवी उ' इत्यादि श्लोकद्वयं,
- इस प्रकार दीक्षा लिया हुआ वह साधु सुन्दर व्रत में स्थिर होकर अहिंसा आदि महाव्रतों में प्रयत्न करे। उसमें अहिंसा की प्रसिद्धि के लिए शास्त्रकार "पुढवी" इत्यादि दो श्लोक कहते हैं पुढवी उ अगणी वाऊ, तणरुक्खसबीयगा । अंडया पोयजराऊ, रससंसेयउब्भिया ।
॥८॥ 1. छलिता अपेक्षमाणा निरपेक्षमाणा गता अविघ्नेन तस्मात्यवचनसारे (ज्ञाते) निरपेक्षेण भवितव्यम् ।।१।। 2. भोगानपेक्षमाणाः पतन्ति संसारसागरे घोरे । भोगेषु निरपेक्षास्तरन्ति संसारकान्तारं ॥१॥
४२२