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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ६
भावधर्ममध्ययन ___ भावार्थ- अपने पाप का फल दुःख भोगते हुए प्राणी को, माता, पिता, पुत्रवधू, भाई, स्त्री और औरस पुत्र आदि कोई भी नहीं बचा सकते हैं।
___टीका - 'माता' जननी 'पिता' जनकः 'स्नुषा' पुत्रवधूः 'भ्राता' सहोदरः तथा 'भार्या' कलत्रं पुत्राश्चौरसा:स्वनिष्पादिता एते सर्वेऽपि मात्रादयो ये चान्ये श्वरशुरादयस्ते तव संसारचक्रवाले स्वकर्मभिर्विलुप्यमानस्य त्राणाय 'नालं' न समर्था भवन्तीति, इहापि तावन्नैते त्राणाय किमुतामुत्रेति, दृष्टान्तश्चात्र कालसौकरिकसुतः सुलसनामा अभयकुमारस्य सखा, तेन महासत्त्वेन स्वजनाभ्यर्थितेनापि न प्राणिष्वपकृतम्, अपि त्वात्मन्येवेति ॥५॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - जन्म देनेवाले माता, पिता, पुत्र की स्त्री, सहोदर भाई, अपनी स्त्री तथा अपने बेटे ये सभी लोग, तथा दूसरे श्वशूर आदि, कोई भी अपने कर्म से संसार में पीड़ित होते हुए तुम्हारी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं । वे, जब कि इसी लोक के दुःख से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते हैं, तब परलोक में रक्षा करने की क्या आशा है?। इस विषय में यह दृष्टान्त है कालसौकरिक (कसाई) का बेटा सुलस नाम का था । उसकी अभयकुमार के साथ मैत्री थी, उसके परिवार वर्ग ने प्राणियों का वध करने के लिए उससे खूब प्रार्थना की परन्तु उस महापराक्रमी पुरुष ने प्राणियों का कुछ भी अपकार नहीं किया, किन्तु अपने ही हाथ में कुल्हाडी मारकर कहा कि आप लोग मेरी इस पीड़ा को ले लो, उन्होंने कहा हम यह नहीं ले सकते, तब सुलस ने कहा जब यह पीड़ा नहीं ले सकते हैं तब परलोक में पाप का फल भोगते समय आप हमारी क्या सहायता कर सकते हैं ? अतः "मैं यह पाप नहीं करूंगा" यह कहकर उसने जीवहिंसा नहीं की थी ॥५॥
एयमढें सपेहाए, परमट्ठाणुगामियं । निम्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहियं।।६।।
छाया - एतदर्थ स प्रेक्ष्य, परमार्थानुगामुकम् । निर्ममो निरहहारः, चरेद् भिक्षुर्जिनाहितम् ॥
अन्वयार्थ - (स) वह साधु, (एयम8 पेहाय) अपने किये हुए पाप से दुःख भोगते हुए प्राणी की ये कोई रक्षा नहीं कर सकते हैं, इस बात का विचारकर तथा (परमट्ठाणुगामिय) संयम या मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को सोचकर (निम्ममो) ममता रहित (निरहंकारो) अहङ्कार रहित होकर (जिणाहियं चरे) जिनभाषित धर्म का आचरण करे ।
भावार्थ - अपने किये हुए कर्मों से सांसारिक दुःख भोगते हुए प्राणी की रक्षा करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है तथा मोक्ष या संयम का कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । इन बातों को जानकर साधु ममता और अहङ्कार रहित होकर जिनभाषित धर्म का अनुष्ठान करे ।
टीका - धर्मरहितानां स्वकृतकर्मविलुप्यमानानामैहिकामुष्मिकयोर्न कश्चित्राणायेति एनं पूर्वोक्तमर्थं स प्रेक्षापूर्वकारी 'प्रत्युपेक्ष्य' विचार्यावगम्य च परमः-प्रधानभूतो (ऽर्थो) मोक्षः संयमो वा तमनुगच्छतीति तच्छीलश्च परमार्थानुगामुक:सम्यग्दर्शनादिस्तं च प्रत्युपेक्ष्य, क्त्वाप्रत्ययान्तस्य पूर्वकालवाचितया क्रियान्तरसव्यपेक्षत्वात् तदाह-निर्गतं ममत्वं बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु यस्मादसौ निर्ममः तथा निर्गतोऽहङ्कारः-अभिमानः पूर्वेश्वर्यजात्यादिमद-जनितस्तथा तपःस्वाध्यायलाभादिजनितो वा यस्मादसौ निरहङ्कारो-रागद्वेषरहित इत्यर्थः, स एवम्भूतो भिक्षुर्जिनैराहितः-प्रतिपादितोऽनुष्ठितो वा यो मार्गो जिनानां वा सम्बन्धी योऽभिहितो मार्गस्तं 'चरेद्' अनुतिष्ठेदिति ॥६॥ अपि च
टीकार्थ - अपने किये हुए पाप कर्म से दुःख भोगते हुए धर्महीन प्राणी को इसलोक या परलोक में कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है, यह पहले कहा जा चुका है। बुद्धिमान् पुरुष इस बात को जानकर तथा परम अर्थ जो मोक्ष या संयम है, उनका कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं, इस बात का भी विचारकर (क्त्वा प्रत्ययान्त पूर्वकालिक अर्थ का बोधक होता है, इसलिए वह दूसरी क्रिया की अपेक्षा रखता है, अतः शास्त्रकार उसे बताते हैं) बाहरी पदार्थ और भीतर की वस्तुओं में साधु ममता न करे । एवं साधु, पहले के ऐश्वर्य, और जातिमद से उत्पन्न, तथा तपस्या, स्वाध्याय और लाभ आदि से उत्पन्न अहङ्कार भी न करे, किन्तु वह राग द्वेष रहित होकर रहे । इस प्रकार रहता हुआ साधु, तीर्थङ्करों के द्वारा कहा हुआ अथवा आचरण किया हुआ अथवा जिन सम्बन्धी जो मार्ग है, उसका आचरण करे ॥६॥
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