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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ४-५ भावधर्ममध्ययन है ? (उत्तर) वे विषयलोलुप जीव आरम्भ से पुष्ट हैं और आरम्भ जीवों का घातक होता है, इसलिए आरम्भ से भरे हुए वे परिग्रही जीव, दुःख देनेवाले आठ प्रकार के कर्मों को दूर करनेवाले नहीं हैं ॥३॥ आघायकिच्चमाहेउं, नाइओ विसएसिणो। अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहिं किच्चती ॥४॥ छाया - आघातकृत्यमाघातुं, ज्ञातयो विषयैषिणः । अन्ये हरन्ति तद् वित्तं, कर्मी कर्मभिः कृत्यते ॥ अन्वयार्थ - (विसएसिणो नाइओ) सांसारिक सुख की इच्छा करनेवाले ज्ञातिवर्ग (आघायकिच्च माहेउ) दाह संस्कार आदि करके (तं वित्तं हरंति) मरे हुए प्राणी के द्रव्य को ले लेते हैं (कम्मी कम्मेहिं किच्चती) परन्तु उस द्रव्य को एकट्ठा करने के लिए पाप कर्म किया हुआ वह पुरुष अकेले अपने कर्म का फल दुःख भोगता है। भावार्थ - ज्ञातिवर्ग धन के लोभी होते हैं, वे दाह संस्कार आदि मरण क्रिया करने के पश्चात् उस मृतव्यक्ति का धन हर लेते हैं । परन्तु पाप कर्म करके धनसश्चय किया हुआ वह मृतव्यक्ति अकेले अपने पाप का फल भोगता है। टीका - आहन्यन्ते-अपनीयन्ते विनाश्यन्ते प्राणिनां दश प्रकारा अपि प्राणा यस्मिन् स आघातो-मरणं तस्मै तत्र वा कृतम्-अग्निसंस्कारजलाञ्जलिप्रदानपितृपिण्डादिकमाघातकृत्यं तदाधातुम्-आधाय कृत्वा पश्चात् 'ज्ञातयः' स्वजनाः पुत्रकलत्रभ्रातृव्यादयः, किम्भूताः ?-विषयानन्वेष्टुं शीलं येषां तेऽन्येऽपि विषयैषिणः सन्तस्तस्य दुःखार्जितं 'वित्तं' द्रव्यजातम् 'अपहरन्ति' स्वीकुर्वन्ति, तथा चोक्तम्“ततस्तेनार्जितैव्यैरिव परिरक्षितैः । क्रीडन्न्यन्ये नरा राजन् ! हृष्टास्तुष्टा ह्यलकृताः ||१॥" स तु द्रव्यार्जनपरायणः सावद्यानुष्ठानवान् कर्मवान् पापी स्वकृतैः कर्मभिः संसारे ‘कृत्यते' छिद्यते पीडयत इति यावत् ।।४।। टीकार्थ - प्राणियों के दश प्रकार के प्राण जिसमें मारे जाते हैं, उसे आघात कहते हैं । वह मरण है, उसके होने के पश्चात् जो अग्निसंस्कार, जलाञ्जलिदान, और पितृपिण्ड आदि दिये जाते हैं, उन्हें आघातकृत्य कहते हैं, उस आघातकृत्य को करके विषय को ढूँढनेवाले उसके पुत्र, स्त्री, और भतीजे वगैरह स्वजनवर्ग, दुःख से कमाये हुए उसके द्रव्य को हर लेते हैं। जैसा कि कहा है। (ततस्तेनार्जितैः) अर्थात् कोई गुरु किसी राजा को ज्ञान देता हुआ कहता है कि हे राजन् । जिसने द्रव्यसंग्रह किया है और सुन्दर स्त्रियाँ ब्याह रखी हैं, उसके मरने के पश्चात् दूसरे लोग मालिक बनकर प्रसन्न होकर तथा जेवर पहिनकर उनके साथ मौज उडाते हैं। परन्तु सावध कर्म के द्वारा द्रव्य का अर्जन किया हुआ वह मृत पापकर्मी पुरुष अपने किये हुए पापकर्म से संसार में पीड़ित किया जाता है ॥४॥ - स्वजनाश्च तद्रव्योपजीविनस्तत्त्राणाय न भवन्तीति दर्शयितुमाह - - स्वजन जो उसके द्वारा उपार्जित धन से जीवन यापन करनेवाले, उसकी रक्षा के लिए नहीं होते । उसे बताने के लिए कहते हैमाया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा । नालं ते तव ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥५॥ छाया - माता, पिता, स्नुषा, भाता, भार्या पत्राचौरसाः । नालं ते तव त्राणाय, लुप्यमानस्य स्वकर्मणा ॥ अन्वयार्थ - (सकम्मुणा) अपने पाप कर्म से (लुप्पंतस्स) संसार में पीड़ित होते हुए (तव) तुम्हारी (ताणाय) रक्षा करने के लिए माता, पिता पूत्रवधू, भाई, स्त्री और औरसपुत्र कोई भी समर्थ नहीं होते हैं। ४२०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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