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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते नवममध्ययने गाथा ३
भावधर्ममध्ययनं छाया - परिग्रहनिविष्टानां, वैरं तेषां प्रवर्धते । आरम्भसम्भृताः कामा, न ते दुःखविमोचकाः ॥
अन्वयार्थ - (माहणा, खत्तिया, वेस्सा) ब्राह्मण, क्षत्रिय और वेश्य (चंडाला अद् बोकसा) चाण्डाल तथा बोक्कस (एसिया वेसिया सहा) एषिक, वैशिक, और शूद्र (जे य आरंभणिस्सिया) और जो आरम्भ में आसक्त रहनेवाले प्राणी है (परिग्गहनिविट्ठाणं तेसिं वेरं पवड्ढइ) परिग्रह में आसक्त रहनेवाले इन प्राणियों का दूसरे प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है (आरंभसंभिया कामा) वे विषयलोलुप जीव, आरम्भ से भरे हुए हैं (ते न दुक्खविमोयगा) अतः वे दुःखरूप आठ प्रकार के कर्मों को छोड़नेवाले नहीं है ।
भावार्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, बोक्कस, एषिक, वैशिक, शूद्र तथा जो प्राणी आरम्भ में आसक्त रहते हैं, उन परिग्रही जीवों का दूसरे जीवों के साथ अनन्त काल के लिए वैर ही बढ़ता है, आरम्भ से भरे हुए, विषय लोलुप वे जीव, दुःख देनेवाले आठ प्रकार के कर्मों को त्यागने वाले नहीं हैं।
टीका - ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्तथा चाण्डालाः अथ बोक्कसा-अवान्तरजातीयाः, तद्यथा-ब्राह्मणेन शूद्यां जातो निषादो ब्राह्मणेनैव वैश्याया जातोऽम्बष्ठः तथा निषादेनाम्बष्टयां जातो बोक्कसः, तथा एषितुं शीलमेषामिति एषिका-मृगलुब्धका हस्तितापसाश्च मांसहेतो गान् हस्तिनश्च एषन्ति, तथा कन्दमूलफलादिकं च, तथा ये चान्ये पाखण्डिका नानाविधैरुपायैर्भक्ष्यमेषन्त्यन्यानि वा विषयसाधनानि ते सर्वेऽप्येषिका इत्युच्यन्ते, तथा 'वैशिका' वणिजो मायाप्रधानाः कलोपजीविनः, तथा 'शूद्राः' कृषीवलादयः आभीरजातीयाः, कियन्तो वा वक्ष्यन्त इति दर्शयति-ये चान्ये वर्णापसदा नानारूपसावद्य 'आरम्भ(म्भे)निश्रिता' यन्त्रपीडननिर्लाञ्छनकर्माङ्गारदाहादिभिः क्रियाविशेषैर्जीवोपमईकारिणः तेषां सर्वेषामेव जीवापकारिणां वैरमेव प्रवर्धत इत्युत्तरश्लोके क्रियेति ॥२॥ किञ्च -
टीका - परि-समन्तात् गृह्यत इति परिग्रहो-द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यसुवर्णादिषु ममीकारस्तत्र 'निविष्टानाम्' अध्युपपन्नानां गाद्धयं गतानां 'पापम्' असातवेदनीयादिकं 'तेषां' प्रागुक्तानामारम्भनिश्रितानां परिग्रहे निविष्टानां प्रकर्षण 'वर्द्धते' वृद्धिमुपयाति जन्मान्तरशतेष्वपि दुर्मोचं भवति, क्वचित्पाठः 'वेरं तेसिं पवड्ढइ'त्ति तत्र येन यस्य यथा प्राणिन उपमर्दः क्रियते स तथैव संसारान्तर्वर्ती शतशो दुःखभाग् भवतीति, जमदग्निकृतवीर्यादीनामिव पुत्रपौत्रानुगं वैरं प्रवर्द्धत इति भावः, किमित्येवं ?, यतस्ते कामेषु प्रवृत्ताः, कामाश्चारम्भैः सम्यग् भृताः संभृता-आरम्भ-पुष्टा आरम्भाश्च जीवोपमर्दकारिणः अतो न ते कामसम्भृता आरम्भनिश्रिताः परिग्रहे निविष्टाः दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकारं कर्म तद्विमोचका भवन्ति-तस्यापनेतारो न भवन्तीत्यर्थः ॥३॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और चाण्डाल तथा बोक्कस, (वर्णसंकर जातिविशेष को 'बोक्कस' कहते हैं। बाह्मण से शद्री में उत्पन्न, निषाद कहा जाता है और ब्राह्मण से ही वैश्या स्त्री में उत्पन्न 'अम्बष्ठ' कहलाता है। एवं निषाद से अम्बष्ठ जाति की स्त्री में उत्पन्न बोक्कस कहलाता है) तथा मांस के लिए जो मृग को तथा हाथी को हुँढते फिरते हैं, वे व्याध तथा हस्तितापस 'एषिक' कहलाते हैं । अथवा जो अपने आहार के लिए कन्द मूल आदि ढुंढते फिरते हैं अथवा जो दूसरे पाषण्डी लोग नानाप्रकार के उपायों से भोजन या विषयसाधन ढुंढते फिरते हैं, वे सब एषिक कहे जाते हैं । तथा वैशिक यानी कलाओं से जीविका करनेवाले, मायाप्रधान वैश्य तथा शूद्र, यानी खेती करनेवाले, अहीर जाति के लोग अथवा नाम लेकर अलग-अलग कितने बताये जायें ? इसलि सामान्यरूप से सबका परिचय कराने के लिए कहते हैं कि नाना प्रकार के आरम्भों में आसक्त रहनेवाले अर्थात् यन्त्रपीडन, निर्लाञ्च्छन, और कोयला बनाना आदि क्रियाओं से जीवों का उपमर्दन करनेवाले जो प्राणी हैं वे सब जीवों का घात करनेवाले हैं, इसलिए जीवों के साथ उनका वैर ही बढ़ता है, (यह उत्तर श्लोक में क्रियापद है।)॥२॥
टीकार्थ - जो चारो तर्फ से ग्रहण किया जाता है, उसे परिग्रह कहते हैं, वह द्विपद, चतुष्पद, धनधान्य और हिरण्य तथा सुवर्ण आदि में ममता करता है, जो प्राणी उक्त परिग्रह में आसक्त रहते हैं एवं आरम्भ में आसक्त रहनेवाले जो पूर्वगाथा में कहे हुए प्राणी हैं, इन लोगों का पाप यानी असातावेदनीय कर्म की अत्यन्त वृद्धि होती है, वे सैकंडों जन्मों में भी इन कर्मों का नाश नहीं कर सकते हैं। कहीं (वेरं तेर्सि पवड्ढई) यह पाठ है, इसका अर्थ यह है कि जो जिस तरह जिस प्राणी का घात करता है, वह उसी तरह संसार में सैकड़ों बार दःख भोगता है । जमदग्नि और कृतवीर्य की तरह पुत्र और पौत्रों तक चलनेवाला उनका वैर बढ़ता है। (प्रश्न) क्यों ऐसा होता
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