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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते नवममध्ययने प्रस्तावना भावधर्ममध्ययनं साधुगुणानां पार्श्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः तथा संयमानुष्ठानेऽवसीदन्तीत्यवसन्नाः तथा कुत्सितं शीलं येषां ते कुशीलाः एतैः पार्श्वस्थादिभिः सह संस्तवः - परिचयः सहसंवासरूपो न किल यतीनां वर्त्तते कर्त्तुम्, अतः सूत्रकृतेऽङ्गे धर्माख्येऽध्ययने एतत् 'निकाचितं' नियमितमिति ॥ १०२ ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं तच्चेदम् टीकार्थ जो जीव को दुर्गति में जाने से बचाता है, उसे धर्म कहते हैं । वह धर्म, पहले दशवैकालिक सूत्र के धर्मार्थ- काम नामक छट्ठे अध्ययन में बतलाया गया है । यहां भावधर्म का अधिकार है, क्योंकि भाव धर्म ही वस्तुतः धर्म है । यही बात आगे दो अध्ययनों में अर्थात् दशम तथा ग्यारहवें अध्ययन में भी बतायी जानेवाली है । यह धर्म ही भावसमाधि और भावमार्ग है, यह जानना चाहिए । अथवा यही भावधर्म है और यही भाव समाधि है तथा यही भाव मार्ग है, परमार्थतः इनमें कोई भेद नहीं है, क्योंकि धर्म श्रुत और चारित्र नामक है अथवा वह, क्षान्ति आदि दश भेदवाला है और भावसमाधि भी एतद्रूपही है, क्योंकि क्षान्ति आदि गुणों को अच्छी रीति से अपने में स्थापन करना समाधि है । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप मुक्तिमार्ग को भावधर्म कहना चाहिए ॥ ९९ ॥ | इस प्रकार थोड़े में बताकर भी यहां स्थान खाली न रहे, इसलिए धर्म का नाम आदि निक्षेप नियुक्तिकार बताते हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, ये चार धर्म के निक्षेप हैं । इनमें नाम और स्थापना को छोड़कर (द्रव्य और भाव निक्षेप बताये जाते हैं) ज्ञशरीर और भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यधर्म सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार का है । इनमें सचित्त यानी जीते हुए शरीर का उपयोगरूप धर्म यानी स्वभाव है । तथा अचित्त धर्मास्तिकाय आदि का भी जो जिसका स्वभाव है, वह उसका धर्म है, क्योंकि वस्तुमात्र को अदृश्यरूप से चलने में सहायता देना, धर्मास्तिकाय का स्वभाव है एवं अधर्मास्तिकाय का स्वभाव वस्तु को ठहराने में सहायता करना है तथा समस्त द्रव्यों को अवगाहन देना आकाश का स्वभाव है। पुद्गलास्तिकाय का स्वभाव भी ग्रहणरूप है । मिश्रद्रव्य जो दूध और जल आदि हैं उनका भी जो जिसका स्वभाव है, वह उनका धर्म जानना चाहिए । गृहस्थों का, जो कुछ, नगर, और ग्राम आदि में बँधा हुआ नियम हैं, वह धर्म (फर्ज) है अथवा गृहस्थ जो गृहस्थों को दान देते हैं, वह उनका द्रव्यधर्म समझना चाहिए । जैसा कि कहा है (अन्नं पानं ) अर्थात् भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, नंगे को वस्त्र, दुःखी को स्थान, एवं सोने और बैठने का आसन देना, रोगी की सेवा करना, नमस्कार करना, और सन्तुष्ट रहना, ये नव प्रकार के पुण्य कहे गये हैं ॥१००॥ अब नियुक्तिकार भाव धर्म का स्वरूप बताने के लिए कहते हैं- भावधर्म, नोआगम से दो प्रकार का है, एक लौकिक और दूसरा लोकोत्तर । लौकिक धर्म दो प्रकार का है, एक गृहस्थों का और दूसरा पाषण्डियों का । लोकोत्तर धर्म ज्ञान, दर्शन और चारित्र भेद से तीन प्रकार का है। इनमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्य्यव, और केवल भेद से ज्ञान पांच प्रकार का है। तथा औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक, और क्षायिक भेद से दर्शन भी पांच प्रकार का । एवं सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात भेद से चारित्र भी पांच प्रकार का है । गाथा के अक्षरों का अर्थ इस प्रकार जानना चाहिए, जैसेकि भाव धर्म, लौकिक और लोकोत्तर भेद से दो प्रकार का है । इनमें लौकिक धर्म दो प्रकार का और लोकोत्तर धर्म तीन प्रकार का समझना चाहिए । लौकिकधर्म गृहस्थ और पाषण्डिक भेद से दो प्रकार का है और लोकोत्तर धर्म ज्ञान, दर्शन और चारित्र भेद से तीन प्रकार का है। इनमें ज्ञान आदि तीन प्रत्येक पांच पांच प्रकार के हैं ॥ १०१ || अब नियुक्तिकार ज्ञान दर्शन और चारित्रवाले साधुओं का जो धर्म है, उसे दिखाने के लिए कहते हैं साधु के गुणों से जो दूर रहते हैं, वे पार्श्वस्थ कहलाते हैं । तथा संयम की क्रिया करने में जो ढिलाई करते हैं, वे अवसन्न कहे जाते हैं । तथा खराब आचारवाले कुशील कहलाते हैं, इन लोगों के साथ साधुओं को परिचय नहीं करना चाहिए । इसलिए सूत्रकृताङ्ग सूत्र के इस धर्माध्ययन में यही बात बतायी गयी है ॥ १०२ ॥ नाम निक्षेप कहा गया । अब सुत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए। वह सूत्र यह है ४१७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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