SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा २६ श्री वीर्याधिकारः एवं विगता गृद्धिर्विषयेषु यस्य स विगतगृद्धिः - आशंसादोषरहितः 'सदा' सर्वकालं संयमानुष्ठाने 'यतेत' यत्नं कुर्यादिति ॥ २५॥ अपि च टीकार्थ साधु स्वभाव से ही अल्पपिण्ड खानेवाला अर्थात थोड़ा भोजन करनेवाला तथा थोड़ा जल पीनेवाला होकर रहे । अत एव आगम कहता है कि "हे जंबू" इत्यादि । अर्थात् हे वीर! तुमको जो कुछ मिलता है, उसे खाकर तुम जिस किसी स्थान पर सुख से सोते हो, तथा जो कुछ मिलता है, उसी में सन्तोष रखकर विचरते हो । अत: तुमने अपने आत्मा को पहचान लिया है । - तथा (अट्ठ.... ) अर्थात् जो मूर्गों के अण्डे के बराबर आठ कवल आहार करता है, वह अल्पाहार करनेवाला है । जो बारह कवल आहार करता है, वह अपार्ध ( आधे से कम) ऊनोदरी करता है । सोलह कवल आहार करना थोड़ी ऊनोदरी है । तीस कवल आहार प्रमाण आहार है। और बत्तीस कवल आहार सम्पूर्ण आहार है । अतः साधु को एक-एक कवल घटाने का अभ्यास करके ऊनोदरी करनी चाहिए । इसी तरह पान और दूसरे उपकरणों में भी ऊनोदरी करनी चाहिए । कहा है कि "थोवाहारो" अर्थात् जो थोड़ा खाता है, थोड़ा बोलता है, थोड़ी निद्रा लेता है, थोड़ी उपधि और थोड़ा उपकरण रखता है । उसको देवता भी नमस्कार करते हैं । तथा सुन्दर व्रतवाला साधु थोड़ा और हितकारक वचन बोले, वह हमेश: विकथा ( चारित्र भ्रष्ट करनेवाली बात) से रहित हो । अब शास्त्रकार भाव ऊनोदरी के विषय में कहते हैं, साधु भाव से क्रोध आदि शान्त हो जाने से क्षमाप्रधान हो तथा लोभ आदि को जीतकर आतुरता रहित हो, तथा इन्द्रिय और मन को दमन करके दान्त (जितेन्द्रिय) हो । अत एव कहा है कि ( कषाया) अर्थात् जिसने कषायों का छेदन नहीं किया तथा जिसका मन अपने वश में नहीं है । उसकी दीक्षा केवल उदर पोषण के लिए हैं । अतः साधु विषयासक्ति को छोड़कर सदा संयम का अनुष्ठान करे ॥२५॥ झाणजोगं समाहट्टु, कायं विउसेज्ज सव्वसो । तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिव्वज्जासि त्ति बेमि ॥ इति श्रीवीरियनाममट्ठममज्झयणं समत्तं [गाथाग्रं ४४६ ] छाया - ध्यानयोगं समाहृत्य, कायं व्युत्सृजेत्सर्वशः । तितिक्षां परमां ज्ञात्वाऽऽमोक्षाय परिव्रजेदिति ॥ ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ – (झाणजोगं समाहट्टु ) साधु ध्यान योग को ग्रहण करके (सव्वसो कायं विउसेज्ज) सब प्रकार से शरीर को बुरे व्यापारों से - रोके ( तितिक्खं परमं णच्चा) परिषह तथा उपसर्ग के सहन को सबसे उत्तम समझकर (आमोक्खाए परिव्वज्जासि त्तिबेमि) मोक्ष की प्राप्ति पर्य्यन्त संयम का अनुष्ठान करे। भावार्थ - साधु ध्यान योग को ग्रहण करके सभी बुरे व्यापारों से शरीर तथा मन, वचन को रोक देवे । एवं परीषह और उपसर्ग के सहन को अच्छा जानकर मोक्ष की प्राप्ति पर्य्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । टीका ४१४ ॥२६॥ 'झाणजोगम्' इत्यादि, ध्यानं - चित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिष्टमनोवाक्कायव्यापारस्तं ध्यानयोगं 'समाहृत्य' सम्यगुपादाय 'कायं' देहमकुशलयोगप्रवृत्तं 'व्युत्सृजेत्' परित्यजेत् 'सर्वत: ' सर्वेणापि प्रकारेण, हस्तपादादिकमपि परपीडाकारि न व्यापारयेत्, तथा 'तितिक्षां' क्षान्तिं परीषहोपसर्गसहनरूपां 'परमां' प्रधानां ज्ञात्वा ‘आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयं यावत् 'परिव्रजेरि' ति संयमानुष्ठानं कुर्यास्त्वमिति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे। ब्र पूर्ववत् ॥ २६ ॥ समाप्तं चाष्टमं श्रीवीर्याख्यमध्ययनमिति ॥ -
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy