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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा २५ श्रीवीर्याधिकारः तप करते हैं, उनका भी तप अशुद्ध है, अतः साधु अपने तप को इस प्रकार गुप्त रखे जिससे दान में श्रद्धा रखनेवाले लोग न जानें । तथा साधु अपने मुख से अपनी प्रशंसा भी न करे । टीका महत्कुलम् - इक्ष्वाकादिकं येषां ते महाकुला लोकविश्रुताः शौर्यादिभिर्गुणैर्विस्तीर्णयशसस्तेषामपि पूजासत्काराद्यर्थमुत्कीर्त्तनेन वा यत्तपस्तदशुद्धं भवति, यच्च क्रियमाणमपि तपो नैवान्ये दानश्राद्धादयो जानन्ति तत्तथाभूतमात्मार्थिना विधेयम्, अतो नैवात्मश्लाघां 'प्रवेदयेत्' प्रकाशयेत्, तद्यथा अहमुत्तमकुलीन इभ्यो वाऽऽसं साम्प्रतं पुनस्तपोनिष्टप्तदेह इति, एवं स्वयमाविष्करणेन न स्वकीयमनुष्ठानं फल्गुतामापादयेदिति ॥२४॥ अपि च - टीकार्थ जिनका इक्ष्वाकु वगैरह बडा कुल है तथा शूरता आदि के द्वारा जिनका यश जगत् में फैला हुआ है, उनका तप भी यदि पूजा और सत्कार पाने की कामना से किया गया हो किंवा उसकी प्रशंसा वे करें तो वह अशुद्ध हो जाता है । अतः आत्मार्थी पुरुष को चाहिए कि उसके तप को, दान में श्रद्धा रखनेवाले पुरुष न जान सकें, ऐसा प्रयत्न करे । तथा वह अपनी प्रशंसा भी न करे कि "मैं उत्तम कुल में उत्पन्न, अथवा धनवान् था और अब तप से अपने शरीर को तपानेवाला तपस्वी हूं" इस प्रकार अपने आप प्रकट करके अपने अनुष्ठान को निःसार न बनावे ||२४|| अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए । खतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीतगिद्धी सदा जए ।।२५।। छाया - अल्पपिण्डाशी पानाशी, अल्पं भाषेत सुव्रतः । क्षान्तोऽभिनिर्वृतो दान्तो वीतगृद्धिः सदा यतेत || अन्वयार्थ - (अप्पपिंडासी) साधु उदर निर्वाह के लिए थोड़ा आहार करे (पाणासि ) उसी के अनुसार थोड़ा जल पीवे (सुव्वए) सुव्रत पुरुष (अप्पं भासेज्ज) थोड़ा बोले (खंते अभिनिव्वुडे,) एवं क्षमाशील, लोभादि रहित (दंते वीतगिद्धी सदा जए) जितेन्द्रिय और विषय भोग में आसक्ति रहित होकर सदा संयम का अनुष्ठान करे । भावार्थ - साधु उदर निर्वाहमात्र के लिए थोड़ा भोजन करे एवं थोड़ा जल पीवे। थोड़ा बोले तथा क्षमाशील और लोभादि रहित, जितेन्द्रिय एवं विषय भोग में अनासक्त रहता हुआ सदा संयम का अनुष्टान करे । " टीका अल्पं - स्तोकं पिण्डमशितुं शीलमस्यासावल्पपिण्डाशी यत्किञ्चनाशीति भावः एवं पानेऽप्यायोज्यं, तथा चागमः "हे जं वनं व आसीय जत्थ व तत्थ व सुहोवगयनिहो । जेण व तेण (व) संतुट्ठ वीर ! मुणिओऽसि ते अप्पा ||१||” तथा ‘अट्ठकुक्कुडिअंडगमेत्तप्पमाणे कवले आहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालसकवलेहिं अवड्ढोमोयरिया, सोलसहिं दुभागे पत्ते, चउवीसं ओमोदरिया, तीसं पमाणपत्ते, बत्तीसं कवला संपूण्णाहारे" इति, अत एकैककवलहान्यादिनोनोदरता विधेया, एवं पाने उपकरणे चोनोदरतां विदध्यादिति, तथा चोक्तम् “थोवाहारो थोवभणिओ अ जो होइ थोवनिद्दो अ । थोवोवहिउवकरणो तस्स हु देवावि पणमंति||१||” तथा 'सुव्रत:' साधुः ‘अल्पं' परिमितं हितं च भाषेत, सर्वदा विकथारहितो भवेदित्यर्थः, भावावमौदर्यमधिकृत्याहभावतः क्रोधाद्युपशमात् 'क्षान्त: ' क्षान्तिप्रधानः तथा 'अभिनिर्वृतो' लोभादिजयान्निरातुरः, तथा इन्द्रियनोइन्द्रियदमनात् 'दान्तो' जितेन्द्रियः, तथा चोक्तम् " कषाया यस्य नोच्छिन्ना, यस्य नात्मवशं मनः । इन्द्रियाणि न गुप्तानि, प्रव्रज्या तस्य जीवनम् ||१||” 1. यद्वा तद्वा अशित्वा यत्र तत्र वा सुखोपगतनिद्रः येन तेन वा सन्तुष्टः (असि) हे वीर ! ज्ञातोऽस्ति त्वयात्मा ॥१॥ 2. अष्टकुक्कट्यण्डकप्रमाणान्कवलानाहारयन्नल्पाहारो द्वादशकवलैरपार्थावमोदरिका षोडशभिर्द्विभागा प्राप्ता चतुर्विंशत्या अवमोदरिका त्रिंशता कवलैः प्रमाणप्राप्तः द्वात्रिंशत्कवलाः सम्पूर्णाहार इति ।। 3. स्तोकाहारः स्तोकभणितः स्तोकनिद्रा यो भवति । स्तोकोपधिकोपकरणस्तस्मै च देवा अपि प्रणमन्ति ||१|| ४१३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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