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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा २३-२४ श्रीवीर्याधिकारः से रोग का नाश नहीं होता है किन्तु रोग की वृद्धि होती है, उसी तरह उन मूखों की क्रिया से संसार की वृद्धि ही होती है हास नहीं होता है । अतः उक्त मिथ्यादृष्टियों का पराक्रम कर्मबन्धन सहित है । वे जो तप का अनुष्ठान आदि क्रियायें करते हैं, वे सभी कर्मबन्ध के लिए ही होती हैं ॥२२॥ साम्प्रतं पण्डितवीर्यणोऽधिकृत्याह अब शास्त्रकार पण्डितवीर्य्यवालों के विषय में कहते हैंजे य बुद्धा महाभागा, वीरा समत्तदंसिणो। सुद्धं तेसि परक्कंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥२३॥ छाया - ये च बुद्धा महाभागा वीरा सम्यक्त्वदर्शिनः । शुद्ध तेषां पराकान्तं, अफलं भवति सर्वशः ।। अन्वयार्थ - (जे य) जो लोग (बुद्धा) पदार्थ के सच्चे स्वरूप को जाननेवाले (महाभागा) बडे पूजनीय (वीरा) कर्म को विदारण करने में निपुण (संमत्तदंसिणो) तथा सम्यग्दृष्टि है (तेसिं परकंत) उनका उद्योग (शुद्ध) निर्मल (सव्वसो अफलं होइ) और सब अफल यानी कर्म बंथ के लिए नहीं होता है। भावार्थ - जो वस्तुतत्त्व को जाननेवाले महापूजनीय एवं कर्म को विदारण करने में समर्थ सम्यग्दृष्टि हैं, उनका तप आदि अनुष्ठान शुद्ध तथा कर्म बंध के लिए नहीं होता है। टीका - ये केचन स्वयम्बुद्धास्तीर्थकराद्यास्तच्छिष्या वा बुद्धबोधिता गणधरादयो 'महाभागा' महापूजाभाजो 'वीराः' कर्मविदारणसहिष्णवो ज्ञानादिभिर्वा गुणैर्विराजन्त इति वीराः, तथा 'सम्यक्त्वदर्शिनः' परमार्थतत्त्ववेदिनस्तेषां भगवतां यत्पराक्रान्तं-तपोऽध्ययनयमनियमादावनुष्ठितं तच्छुद्धम्-अवदातं निरुपरोधं सातगौरवशल्यकषायादिदोषाकलङ्कितं, कर्मबन्धं प्रति अफलं भवति- तन्निरनुबन्धनिर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः, तथाहि- सम्यग्दृष्टीनां सर्वमपि संयमतपःप्रधानमनुष्ठानं भवति, संयमस्य चानाश्रवरूपत्वात् तपसश्च निर्जराफलत्वादिति, तथा च पठयते- "संयमे अणण्हयफले तवे वोदाणफले" इति ॥२३।। किञ्चान्यत् टीकार्थ - जो पुरुष अपने आप बोध पाये हुए तीर्थङ्कर आदि हैं तथा उनके शिष्य अथवा बुद्धबोधित गणधर आदि हैं, जो महापूजनीय और कर्म को विदारण करने में समर्थ हैं अथवा ज्ञानादिगुणों से शोभापानेवाले, सच्चे स्वरूप को देखनेवाले हैं, उन महात्मा पुरुषों का तप, अध्ययन, यम और नियम आदि अनुष्ठान शुद्ध है अर्थात् वह सुख की इच्छा और क्रोधादिरूप शल्य, तथा कषाय आदि दोषों से कलङ्कित नहीं है, इसलिए वह कर्मबन्ध के प्रति निष्फल होता है अर्थात् वह संसार भ्रमण रहित केवल निर्जरा के लिए होता है क्योंकि सम्यग्दृष्टियों का सभी अनुष्ठान संयम और तपःप्रधान होता है, उसमें संयम से आश्रव का निरोध होता है और तप से निर्जरा होती है । अत एव शास्त्र का पाठ है कि “संयमे" अर्थात् संयम से आश्रव रूकता है और तप से निर्जरा होती है ॥२३॥ तेसिपि तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला । जन्नेवऽन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जए ॥२४॥ छाया - तेषामपि तपो न शुद्ध, निष्क्रान्ता ये महाकुलाः । यल्लेवाऽव्ये विजानन्ति, न श्लोकं प्रवेदयेत् ।। अन्वयार्थ - (तेसिंवि तवो ण सुद्धं) उनका तप भी शुद्ध नहीं है (जे महाकुला निक्खंता) जो महाकुलवाले प्रव्रज्या लेकर पूजा सत्कार के लिए तप करते हैं (जन्नेवऽन्ने वियाणंति) इसलिए दान में श्रद्धा रखनेवाले दूसरे लोग जिस को जाने नहीं (इस प्रकार आत्मार्थी को तप करना चाहिए) (न सिलोगं पवेदए) तथा अपनी प्रशंसा भी तपस्वी को न करनी चाहिए । भावार्थ - जो लोग बडे कुल में उत्पन्न होकर अपने तप की प्रशंसा करते हैं अथवा पूजा सत्कार पाने के लिए 1. महानागाः प्र०। 2. संयमोऽनाश्रवफलः तपो व्यवदान्फलमिति । ४१२
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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