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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा २२
जे याबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो ।
असुद्धं तेसि परक्कतं, सफलं होइ सव्वसो
श्रीवीर्याधिकारः
॥२२॥
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ये चाबुद्धा महाभागा वीरा असम्यक्त्वदर्शिनः । अशुद्धं तेषां पराक्रान्तं, सफलं भवति सर्वशः ॥
छाया
अन्वयार्थ (जे याबुद्धा) जो पुरुष धर्म के रहस्य को नहीं जानते है ( महाभागा ) किन्तु जगत् में पूजनीय माने जाते हैं (वीरा असंमत्तदंसिणो) शत्रु की सेना को जीतनेवाले हैं एवं (असंमत्तदंसिणो) सम्यग्दर्शन से रहित हैं (तेसिं परक्कतं असुद्धं ) उनका तप, दान आदि में उद्योग अशुद्ध हैं (सव्वसो सफलं होइ) और वह कर्मबन्धन के लिए होता है ।
भावार्थ - जो पुरुष लोक पूज्य तथा बड़े वीर हैं, वे यदि धर्म के रहस्य को न जानने वाले मिथ्या दृष्टि हैं तो उनका किया हुआ सभी तप, दान आदि अशुद्ध है, और वह कर्मबन्धन को उत्पन्न करता है ।
टीका - ये केचन 'अनुद्धा' धर्मं प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कतर्कादिपरिज्ञानेन जातावलेपाः पण्डितमानिनोऽपि परमार्थवस्तुतत्त्वानवबोधादबुद्धा इत्युक्तं, न च व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्यक्त्वव्यतिरेकेण तत्त्वावबोधो भवतीति, तथा
चोक्तम्
" शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि, नैवाबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् । नानाप्रकाररसभावगताऽपि दव, स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेत्ति ||१||” यदिवाऽबुद्धा इव बालवीर्यवन्तः, तथा 'महान्तश्च ते भागाश्च महाभागाः, भागशब्द: पूजावचनः ततश्च महापूज्या इत्यर्थः, लोकविश्रुता इति, तथा 'वीराः' परानीकभेदिनः सुभटा इति, इदमुक्तं भवति - पण्डिता अपि त्यागादिभिर्गुणैर्लोकपूज्या अपि तथा सुभटवादं वहन्तोऽपि सम्यक् तत्त्वपरिज्ञानविकलाः केचन भवन्तीति दर्शयति न सम्यगसम्यक् तद्भावोऽसम्यक्त्वं तद्द्द्रष्टुं शीलं येषां ते तथा, मिथ्यादृष्टय इत्यर्थः, तेषां च बालानां यत्किमपि तपोदानाध्ययनयमनियमादिषु पराक्रान्तमुद्यमकृतं तदशुद्धं अविशुद्धिकारि प्रत्युत कर्मबन्धाय, भावोपहतत्वात् सनिदानत्वाद्वेति कुवैद्यचिकित्सावद्विपरीतानुबन्धीति, तच्च तेषां पराक्रान्तं सह फलेन - कर्मबन्धेन वर्तत इति सफलं 'सर्वश' इति सर्वाऽपि तत्क्रिया तपोनुष्ठानादिका कर्मबन्धायैवेति ॥२२॥
टीकार्थ जो पुरुष धर्म के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते हैं किन्तु व्याकरण के शुद्ध तर्कों को जानकर बड़े अहङ्कारी और अपने को पण्डित मानते हैं, वे परमार्थ वस्तु को ( वस्तु के सच्चे स्वरूप को) न जानने के कारण अबुद्ध (अज्ञानी) कहे गये हैं । सम्यक्त्व के बिना केवल व्याकरण के ज्ञान से वस्तु का सत्यस्वरूप नहीं जाना जाता है । जैसा कि कहा है
(शास्त्रावगाह) अर्थात् "शास्त्र में अवगाहन (प्रवेश) और उसकी व्याख्या करने में तत्पर भी अज्ञानी पुरुष वस्तु के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते हैं (क्योंकि वह अनुभव से जाना जाता है) जैसे नाना प्रकार के रसवाले पदार्थों में डाली जाती हुई भी दव ( चम्मच) रस का स्वाद नहीं जानती है ।"
अथवा बालवीर्य्य वाले पुरुष को अबुद्ध कहते हैं। तथा जो महाभाग्यशाली यानी पूजनीय है, वह लोकप्रसिद्ध पुरुष महाभाग है । भाग शब्द पूजा अर्थ का वाचक है । एवं जो शत्रु की सेना का भेदन करनेवाला है, वह सुभट है । आशय यह है कि कोई पुरुष पण्डित तथा त्याग आदि गुणों से लोक में पूजनीय और सुभट होते हुए भी वस्तु के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते हैं, यह शास्त्रकार दिखाते हैं। जो ठीक नहीं है- उसे असम्यक् कहते हैं, उस असम्यक् के स्वरूप को असम्यक्त्व कहते हैं (अर्थात् जो ठीक नहीं है किन्तु विपरीत है, उसे असम्यक्त्व मिथ्याज्ञान) कहते हैं । उसे जो देखता है, वह पुरुष असम्यक्त्वदर्शी है यानी जो मिथ्यादृष्टि है वह असम्यक्त्वदर्शी है । उन मिथ्यादृष्टि पुरुषों का तप, दान, अध्ययन, यम और नियम आदि में जो उद्यम के साथ प्रयत्न हैं, वह सब अशुद्ध यानी कर्मबन्ध को उत्पन्न करता है क्योंकि वह उन मिथ्यादृष्टियों के भाव से दूषित है (अर्थात् वे मन में संसारी सुख की इच्छा रखते हैं) तथा वह निदान के ( फल कामना के) सहित है । जैसे कुवैद्य की चिकित्सा 1. महान्तश्चेति नागाश्च । महान्तथ ते नागाव प्र० । 2. मुद्यगः कृतस्त० ।
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