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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा २१ श्रीवीर्याधिकारः भावार्थ- वाणी या मन से किसी जीव को पीड़ा देने की इच्छा न करे किन्तु बाहर और भीतर से गुप्त और इन्द्रियों का दमन करता हआ साध अच्छी रीति से संयम का पालन करे । टीका - प्राणिनामतिक्रम-पीडात्मकं महाव्रतातिक्रमं वा मनोऽवष्टब्धतया परतिरस्कारं वा इत्येवम्भूतमतिक्रम वाचा मनसाऽपि च न प्रार्थयेत्, एतद्द्वयनिषेधे च कायातिक्रमो दूरत एव निषिद्धो भवति, तदेवं मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिभिश्च नवकेन भेदेनातिक्रमं न कुर्यात्, तथा सर्वतः-सबाह्याभ्यन्तरतः संवृतो-गुप्तः तथा इन्द्रियदमेन तपसा वा दान्तः सन् मोक्षस्य 'आदानम्' उपादानं सम्यग्दर्शनादिकं सुष्ट्रद्युक्तः सम्यग्विस्रोतसिकारहितः ‘आहरेत्' आददीत-गृह्णीयादित्यर्थः ॥२०॥ किञ्चान्यत् टीकार्थ - प्राणियों को अतिक्रम अर्थात् पीड़ा देना अथवा पञ्च महाव्रत का उल्लङ्घन अथवा मन में अहङ्कार लाकर दूसरे का तिरस्कार करना इन कार्यों को साधु वाणी से अथवा मन से न करे । इन दोनों के द्वारा अतिक्रम का निषेध करने से शरीर के द्वारा अतिक्रम करने का निषेध दूर से ही हो गया । इस प्रकार मन, वचन और काया से करना, कराना और अनुमोदन, इन नौ भेदों से जीव हिंसा आदि पाप न करे । तथा सब प्रकार से यानी बाहर और भीतर से गुप्त और इन्द्रियों का दमन अथवा तप से दान्त रहता हुआ साधु मोक्ष देनेवाले सम्यग् दर्शन आदि को तत्परता के साथ मन की बरी वासनाओं को छोड़कर ग्रहण करे ॥२०॥ कडं च कज्जमाणं च, आगमिस्सं च पावगं । सव्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ॥२१॥ छाया - कृतश्च क्रियमाणश्च, आगमिष्यच्च पापकम् । सर्व तळानुनानन्त्यात्मगुप्ताः जितेन्द्रियाः ॥ अन्वयार्थ - (आयगुत्ता जिईदिया) गुप्तात्मा, जितेन्द्रिय पुरुष, (कडं च कज्जमाणं च आगमिस्सं च पावगं) किया हुआ, किया जाता हुआ अथवा किया जानेवाला जो पाप है (सव्वं तं णाणुजाणंति) उन सभी का अनुमोदन नहीं करते हैं। भावार्थ - अपने आत्मा को पाप से गुप्त रखने वाले जितेन्द्रिय पुरुष किसी के द्वारा किये हुए तथा किये जाते हुए और भविष्य में किये जाने वाले पाप का अनुमोदन नहीं करते हैं। टीका - साधूद्देशेन यदपरैरनार्यकल्पैः कृतमनुष्ठितं पापकं कर्म तथा वर्तमाने च काले क्रियमाणं तथाऽऽगामिनि च काले यत्करिष्यते तत्सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिः 'नानुजानन्ति' नानुमोदन्ते, तदुपभोगपरिहारेणेति भावः, यदप्यात्मार्थ पापकं कर्म परैः कृतं क्रियते करिष्यते वा, तद्यथा-शत्रोः शिरश्छिन्नं छिद्यते छेत्स्यते वा तथा चौरो हतो हन्यते हनिष्यते वा इत्यादिकं परानुष्ठानं 'नानुजानन्ति' न च बहु मन्यन्ते, तथा यदि परः कश्चिदशुद्धेनाहारेणोपनिमन्त्रयेत्तमपि नानुमन्यन्त इति, क एवम्भूता भवन्तीति दर्शयति-आत्माऽकुशलमनोवाक्कायनिरोधेन गुप्तो येषां ते तथा, जितानि-वशी-कृतानि इन्द्रियाणि-श्रोत्रादीनि यैस्ते तथा, एवम्भूताः पापकर्म नानुजानन्तीति स्थितम् ॥२१॥ अन्यच्च टीकार्थ - साधुओ के लिए दूसरे अनार्य के समान पुरुषों ने जो पाप किया है तथा वर्तमान समय में जो करते हैं और भविष्य में जो करेंगे, उन सबों का मन, वचन और काय से साधु अनुमोदन नहीं करते हैं। अर्थात् वे स्वयं उस पापमय वस्तु को भोगते नहीं है । तथा दूसरों ने अपने स्वार्थ के लिए जो पाप किया है तथा करते हैं और करेंगे, जैसे कि "शत्रु का शिर काट डाला, काट रहा है अथवा काट डालेगा, एवं चोर को मार डाला अथवा मार रहा है या मार डालेगा" इत्यादि दूसरों के अनुष्ठानों को साधु अच्छा नहीं मानते हैं । तथा दूसरा अशुद्ध आहार बनाकर यदि साधु को निमन्त्रित करे तो साधु उसको स्वीकार न करे । ऐसे पुरुष कौन है? सो शास्त्रकार दिखलाते हैं अकुशल मन, वचन और काय को रोक कर जिसने अपने आत्मा को निर्मल रखा है तथा श्रोत्र आदि इन्द्रियों को जिसने वश किया है, ऐसे पुरुष उक्त पाप कर्मों का अनुमोदन नहीं करते हैं ॥२१॥ ४१०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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