________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा १८
श्रीवीर्याधिकारः भावार्थ - साधु अल्प भी मान और माया न करे । मान और माया का फल बुरा है । इस बात को जानकर पण्डित पुरुष, सुख भोग की तृष्णा न करे एवं क्रोधादि को छोड़कर शान्त और माया रहित होकर विचरे ।
टीका - चक्रवर्त्यादिना सत्कारादिना पूज्यमानेन 'अणुरपि' स्तोकोऽपि 'मान' अहङ्कारो न विधेयः, किमुत महान् ?, यदिवोत्तममरणोपस्थितेनोग्रतपोनिष्टप्तदेहेन वा अहोऽहमित्येवंरूपः स्तोकोऽपि गर्वो न विधेयः, तथा पण्डुरार्ययेव स्तोकाऽपि माया न विधेया, किमुत महती ?, इत्येवं क्रोधलोभावपि न विधेयाविति, एवं द्विविधयापि परिज्ञया कषायांस्तद्विपाकांश्च परिज्ञाय तेभ्यो निवृत्तिं कुर्यादिति, पाठान्तरं वा 'अइमाणं च मायं च, तं परिण्णाय पंडिए' अतीव मानोऽतिमानः सुभूमादीनामिव तं दुःखावहमित्येवं ज्ञात्वा परिहरेत्, इदमुक्तं भवति-यद्यपि सरागस्य कदाचिन्मानोदयः स्यात्तथाप्युदय-प्राप्तस्य विफलीकरणं कुर्यादित्येवं मायायामप्यायोज्यं, पाठान्तरं वा 'सुयं मे इहमेगेसिं, एवं वीरस्य वीरियं' येन बलेन सङ्ग्रामशिरसि महति सुभटसंकटे परानीकं विजयते तत्परमार्थतो वीर्यं न भवति, अपि तु येन कामक्रोधादीन् विजयते तद्वीरस्य-महापुरुषस्य वीर्यम् 'इहैव' अस्मिन्नेव संसारे मनुष्यजन्मनि वैकेषां तीर्थकरादीनां सम्बन्धि वाक्यं मया श्रुतं,पाठान्तरं वा 'आयतटुं सुआदाय, एवं वीरस्स वीरियं' आयतो-मोक्षोऽपर्यवसितावस्थानत्वात् स चासावर्थश्च तदर्थो वा-तत्प्रयोजनो वा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमार्गः स आयतार्थस्तं सुष्टवादाय-गृहीत्वा यो धृतिबलेन कामक्रोधादिजयाय च पराक्रमते एतद्रीरस्य वीर्यमिति. यदक्तमासीत 'किं न वीरस्स वीरत्व'मिति तद्यथा भवति तथा व्याख्यातं, किञ्चान्यत्-सातागौरवं नाम सुखशीलता तत्र निभृतः-तदर्थमनुधुक्त इत्यर्थः, तथा क्रोधाग्निजयादुपशान्तःशीतीभूतः शब्दादिविषयेभ्योऽप्यनुकूलप्रतिकूलेभ्योऽरक्तद्विष्टतयोपशान्तो जितेन्द्रियत्वात्तेभ्यो निवृत्त इति, तथा निहन्यन्ते प्राणिनः संसारे यया सा निहा-माया न विद्यते सा यस्यासावनिहो मायाप्रपञ्चरहित इत्यर्थः, तथा मानरहितो लोभवर्जित इत्यपि द्रष्टव्यं, स चैवम्भूतः संयमानुष्ठानं 'चरेत्' कुर्यादिति, तदेवं मरणकालेऽन्यदा वा पण्डितवीर्यवान् महाव्रतेषूद्यतः स्यात् । तत्रापि प्राणातिपातविरतिरेव गरीयसीतिकृत्वा तत्प्रतिपादनार्थमाह“उड्ढमहे तिरियं वा जे पाणा तसथावरा । सव्वत्थ विरतिं कुज्जा, संति निव्वाणमाहियं ॥३॥" अयं च श्लोको न सूत्रादर्शेषु दृष्टः, टीकायां तु दृष्ट इति कृत्वा लिखितः, उत्तानार्थश्चेति ॥१८॥ किञ्च
टीकार्थ - चक्रवर्ती आदि यदि साधु की सत्कार आदि से पूजा करे तो साधु अल्प भी अहङ्कार न करे फिर बहुत अहङ्कार की तो बात ही क्या है । अथवा मैं उत्तम मरण में उपस्थित हूं तथा उग्र तप से कैसा तप्त शरीर हूं, इस प्रकार थोड़ा भी गर्व साधु न करे । तथा पाण्डु आर्या के समान साधु थोड़ी भी माया न करे फिर बड़ी माया का तो कहना ही क्या है ?। इसी तरह क्रोध और लोभ भी न करे । इस प्रकार ज्ञपरिज्ञा (जानना) और प्रत्याख्यान परिज्ञा (वर्तना) रूप दोनों परिज्ञाओं से कषाय तथा उनके फल को जानकर उनका त्याग करे। यहां “अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए" यह पाठान्तर पाया जाता है । इसका अर्थ यह है कि मतिमान् पुरुष, अत्यन्त मान सुभूम की तरह दुःखदायी है, यह जानकर छोड़ देवे । आशय यह है कि सराग संयम में कदाचित् मान का उदय हो तो तुरंत उसे विफल कर देवे अर्थात् दबा देवे इसी तरह माया आदि को भी दबा देवे । अथवा "सुयं मे इहमेगेसिं, एयं वीरस्स वीरियं" यह पाठान्तर यहां पाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि युद्ध के अग्र भाग में बड़े बड़े सुभट पुरुषों के संकट में जिस बल के द्वारा शत्रु की सेना जीती जाती है वस्तुतः वह वीर्य नही हैं किन्तु जिसके द्वारा काम, क्रोध आदि जीते जाते हैं, वही पुरुष का सच्चा वीर्य्य है, यह मैने इस संसार में अथवा मनुष्य भव में तीर्थङ्कर वगैरह उत्तम पुरुषों का वाक्य सुना है। अथवा "आयतटुं सुआदाय, एवं वीरस्स वीरियं" आयत, मोक्ष का नाम है क्योंकि उसके निवास का अन्त नहीं है, उस मोक्षरूप अर्थ को अथवा उस मोक्ष को देनेवाला सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मोक्षमार्ग को आयतार्थ कहते हैं, उसे अच्छी रीति से ग्रहण करके जो पुरुष धीरता के बल से काम क्रोधादि को जीतने के लिए पराक्रम दिखाता है, वही उस वीर का वास्तविक वीर्य है । पहले जो प्रश्न किया था कि "वीर पुरुष की वीरता क्या है ?" उसका उत्तर इसके द्वारा दिया गया तथा इन्द्रियों के सुख भोग में तृष्णा करने को साता गौरव कहते हैं, साधु उसके लिए उद्योग न करे। तथा क्रोध 1. अ० ३ उ० ४ गाथा० २० नवरं जे केईत्ति ।
४०८