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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा १७-१८ श्रीवीर्याधिकारः पण्डितमरणेनात्मानं समाहरेदिति ॥१६॥ संहरणप्रकारमाह टीकार्थ - यथा शब्द उदाहरण बताने के लिए है । जैसे कछुवा, अपनी, गर्दन आदि अङ्गों को अपने शरीर में छिपा लेता है अर्थात् उनको व्यापार रहित कर देता है, इसी तरह मर्यादा में रहनेवाला भले और बुरे का विचार करनेवाला पुरुष, पापरूप अनुष्ठानों को सम्यग् धर्म ध्यान की भावना से त्याग देवे तथा मरण काल आने पर संलेखना के द्वारा शरीर को शुद्ध करके पण्डित मरण से अपना शरीर छोड़े ॥१६॥ साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेंदियाणि य । पावकं च परीणामं, भासादोसंच तारिसं ॥१७॥ छाया - संहरेद्धस्तपादश्च, मनः पञ्चेन्द्रियाणि च । पापकच परिणाम, भाषादोषच तादृशम् ॥ अन्वयार्थ - (हत्थपाए य साहरे) साधु अपने हाथ पैर को संकुचित (स्थिर) रखे । (मणं पंचेंदियाणि य) और मन तथा पाँच इन्द्रियों को भी उनके विषयों से निवृत्त रखे (पावकं परीणाम तारिसं भासादोसं च) तथा पापरूप परिणाम और पापमय भाषादोष को भावार्थ - साधु अपने हाथ पैर को स्थिर रखे, जिससे उनके द्वारा किसी जीव को दुःख न हो, तथा मन के द्वारा बुरा संकल्प और पांच इन्द्रियों के विषयों में रागद्वेष, तथा पाप परिणाम और पापमय भाषादोष को वर्जित करे ।। टीका - पादपोपगमने इङ्गिनीमरणे भक्तपरिज्ञायां शेषकाले वा कूर्मवद्धस्तौ पादौ च 'संहरेद्' व्यापारान्निवर्त्तयेत्, तथा 'मनः' अन्तःकरणं तच्चाकुशलव्यापारेभ्यो निवर्तयेत्, तथा-शब्दादिविषयेभ्योऽनुकूलप्रतिकूलेभ्योऽरक्तद्विष्टतया श्रोत्रेन्द्रियादीनि पञ्चापीन्द्रियाणि च शब्दः समुच्चये तथा पापकं परिणाममैहिकामुष्मिकाशंसारूपं संहरेदित्येवं भाषादोषं च 'तादृशं पापरूपं संहरेत्', मनोवाकायगुप्तः सन् दुर्लभं सत्संयममवाप्य पण्डितमरणं वाऽशेषकर्मक्षयार्थं सम्यगनुपालयेदितिी॥१७॥ टीकार्थ - पादप उपगमन अर्थात् कटे हुए वृक्ष की तरह निश्चेष्ट रहकर सेवा और अन्न पानी का त्यागरूप अनशन में तथा इङ्गित मरण अर्थात् मर्यादित क्षेत्र में रहकर सेवा कराना परन्तु अन्न पानी का त्यागरूप अनशन में या दूसरे समय में साधु अपने हाथ पैर को कछुवे की तरह संकुचित करे अर्थात् उनके द्वारा प्राणियों को दुःख देनेवाला व्यापार न करे तथा मन को अकुशल व्यापारों (बुरे संकल्पो) से निवारण करे, एवं अनुकुल तथा प्रतिकूल शब्द आदि विषयों में रागद्वेष छोड़कर इन्द्रियों को संकुचित करे । (च शब्द समुच्चय अर्थ में है) तथा इसलोक परलोक में सुख प्राप्ति की कामनारूप पापमय परिणाम को तथा पापमय भाषा दोष को साधु वर्जित करे । साधु मन, वचन और काय से गुप्त रहता हुआ दुर्लभ सत् संयम को पाकर समस्त कर्मों का क्षय करने के लिए पण्डित मरण की प्रतीक्षा करे ॥१७॥ - तं च संयमे पराक्रममाणं कश्चित् पूजासत्कारादिना निमन्त्रयेत्, तत्रात्मोत्कर्षो न कार्य इति दर्शयितुमाह - संयम में खूब उद्योग करते हुए उस उत्तम साधु को देखकर यदि कोई (बड़ा आदमी) पूजा सत्कार वगैरह से निमन्त्रण करे तो साधु को अहङ्कार न करना चाहिए यह शास्त्रकार बतलाते हैअणु माणं च मायं च, तं पडिन्नाय पंडिए । सातागारवणिहुए, उवसंते णिहे चरे ॥१८॥ छाया - अणुं मानच मायाश, तत्परिज्ञाय पण्डितः । सातागोरखनिभृत उपशान्तोऽनिहश्चरेत् ॥ अन्वयार्थ - (अणु माणं च मायं च) साधु अल्प भी मान और माया न करे (तं पडिन्नाय) मान और माया का बुरा फल जानकर (पंडिए) विद्वान् पुरुष (सातागारवणिहुए) सुखशीलता से रहित (उवसंते) तथा शान्त (अणिहे) और माया रहित होकर (चरे) विचरे । 1. उपसंहरेत् प्र०। ४०७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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