________________
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा १५-१६
श्रीवीर्याधिकारः हैं, उत्तम बुद्धि के द्वारा, अथवा अपनी विशेष बुद्धि के द्वारा, या श्रुत ज्ञान के द्वारा, अथवा अवधिज्ञान के द्वारा (ज्ञान अपने और दूसरे के स्वरूप का बोधक है) धर्म के सार को जानकर यह अर्थ है । अथवा तीर्थङ्कर, गणधर और आचार्य्य आदि से इलापुत्र की तरह, अथवा दूसरे से सुनकर चिलाती पुत्र की तरह धर्म का सार जानता है अथवा धर्म के साररूप चारित्र को प्राप्त करता है । चारित्र को प्राप्त करके पहले बाँधे हुए कर्मों का क्षय करने के लिए पण्डित वीर्य्य से युक्त होकर तथा रागादि बन्धनों से मुक्त और बाल वीर्य्य रहित साधु उत्तरोत्तर गुण की वृद्धि के लिए बढ़ते परिणामवाला पाप का प्रत्याख्यान करके निर्मल होता है || १४ ||
जं किंचुवक्कमं जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो ।
तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए
118411
छाया
यं कञ्चिदुपक्रमं जानीयादायुःक्षेमस्यात्मनः । तस्यैवान्तरा क्षिप्रं शिक्षां शिक्षेत् पण्डितः ॥
अन्वयार्थ - (पंडिए) विद्वान पुरुष (अप्पणो आउक्खेमस्स) अपनी आयु का (जं किंचुवक्कमं जाणे) घात यदि जाने तो (तस्सेव अंतरा) उसके अन्दर ही (खिप्पं) शीघ्र (सिक्खं) संलेखनारूप शिक्षा ( सिक्खेज्ज) ग्रहण करे ।
-
भावार्थ - विद्वान पुरुष किसी प्रकार अपनी आयु का क्षयकाल यदि जाने तो उसके पहले ही संलेखनारूप शिक्षा को ग्रहण करे ।
टीका उपक्रम्यते - संवर्त्यते क्षयमुपनीयते आयुर्येन स उपक्रमस्तं यं कञ्चन जानीयात् कस्य ?'आयुःक्षेमस्य' स्वायुष इति इदमुक्तं भवति - स्वायुष्कस्य येन केनचित्प्रकारेणोपक्रमो भावी यस्मिन् वा काले तत्परिज्ञाय तस्योपक्रमस्य कालस्य वा अन्तराले क्षिप्रमेवानाकुलो जीवितानाशंसी 'पण्डितो' विवेकी संलेखनारूपां शिक्षां भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणादिकां वा शिक्षेत्, तत्र ग्रहणशिक्षया यथावन्मरणविधिं विज्ञायाऽऽसेवनाशिक्षया त्वासेवेतेति ॥१५॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - जिससे आयु क्षय को प्राप्त होता है, उसे उपक्रम कहते है । यदि साधु किसी प्रकार अपनी आयु का उपक्रम (विनाश कारण) जाने अर्थात् वह, अपनी आयु का जिस प्रकार नाश होनेवाला है अथवा जिस काल में क्षय होनेवाला है, उसे जानकर उस काल के पहले ही आकुलता छोड़कर तथा जीने की इच्छा से रहित होकर संलेखना रूप शिक्षा को अथवा भक्तपरिज्ञा ( अन्न अथवा अन्नपानी दोनों का त्याग ) और इङ्गितमरण (मर्यादित जगह में रहकर अन्नपानी का त्याग करना आदि परन्तु शरीर की सेवा कराना) आदि शिक्षा को ग्रहण करे । उसमें ग्रहण शिक्षा के द्वारा मरण विधि को ठीक-ठीक जानकर आसेवना शिक्षा से उसका सेवन करे ||१५||
जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे ।
एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे
॥१६॥
छाया
यथा कूर्मः स्वाङ्गानि, स्वके देहे समाहरेत् । एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मना समाहरेत् ॥
अन्वयार्थ - ( जहा कुम्मे सअंगाई सए देहे समाहरे) जैसे कछुवा अपने देह को सींकोड़ लेता है ( एवं मेधावी) इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष, (पावाई) पापों को (अज्झप्पेण समाहरे) धर्म ध्यान आदि की भावना से संकुचित कर दे ।
-
भावार्थ - जैसे कछुवा अपने अङ्गों को अपनी देह में संकुचित कर लेता है, इसी तरह विद्वान् पुरुष धर्म ध्यान की भावना से अपने पापों को संकुचित कर दे ।
४०६
टीका 'यथे' त्युदाहरणप्रदर्शनार्थः यथा 'कूर्मः' कच्छपः स्वान्यङ्गानि - शिरोधरादीनि स्वके देहे 'समाहरेद्' गोपयेद्-अव्यापाराणि कुर्याद् 'एवम्' अनयैव प्रक्रियया 'मेधावी' मर्यादावान् सदसद्विवेकी वा 'पापानि' पापरूपाण्यनुष्ठानानि 'अध्यात्मना' सम्यग्धर्मध्यानादिभावनया 'समाहरेत्' उपसंहरेत्, मरणकाले चोपस्थिते सम्यक् संलेखनया संलिखितकायः