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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा १४
श्रीवीर्याधिकारः
छाया - एवमादाय मेधावी, आत्मनो गृद्धिमुद्धरेत् । आर्य्यमुपसंपद्येत, सर्वधर्मेरकोपितम् ॥ अन्वयार्थ - (मेहावी) बुद्धिमान्, पुरुष, ( एवमादाय) यह विचारकर ( अप्पणो गिद्धिमुद्धरे) अपनी ममत्व बुद्धि को हटा दे, तथा ( सव्वधम्ममकोवियं) सभी कुतीर्थिक धर्मों से दूषित नहीं किये हुए ( आरियं उवसंपज्जे) इस आर्य्य धर्म को ग्रहण करे ।
भावार्थ - सभी उच्चपद अनित्य हैं, यह जानकर विवेकी पुरुष अपनी ममता को उखाड़ देंवे तथा सब कुतीर्थिक धर्मों से अदूषित इस आर्य्य धर्म को (श्रुत और चारित्र को ) ग्रहण करे ।
टीका अनित्यानि सर्वाण्यपि स्थानानीत्येवम् 'आदाय' अवधार्य 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वो आत्मनः सम्बन्धिनीं 'गृद्धि' गाद्धर्यं ममत्वम् 'उद्धरेद्' अपनयेत्, ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं ममत्वं क्वचिदपि न कुर्यात्, तथा आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यो - मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः, आर्याणां वा तीर्थकृदादीनामयमार्योमार्गस्तम् 'उपसम्पद्येत' अधितिष्ठेत् समाश्रयेदिति, किम्भूतं मार्गमित्याह सर्वैः कुतीर्थिकधर्मैः 'अकोपितो' अदूषितः स्वमहिम्नैव दूषयितुमशक्यत्वात् प्रतिष्ठां गतः (तं), यदिवा- सर्वैर्धर्मे :- स्वभावैरनुष्ठानरूपैरगोपितं कुत्सितकर्त्तव्याभावात् प्रकटमित्यर्थः ॥१३॥
टीकार्थ मर्य्यादा में रहनेवाला अथवा भले बुरे का विवेक रखनेवाला पुरुष, सभी स्थान अनित्य हैं, यह विचारकर अपनी ममता को त्याग देवे । वह कभी भी ममता न करे कि "यह वस्तु मेरी है और मैं इसका स्वामी हुं" । तथा जो त्यागने योग्य सभी अधर्मों से दूर रहता है, उसे आर्य्य धर्म कहते हैं, वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मोक्षमार्ग है अथवा तीर्थङ्कर आदि आर्य्य पुरुषों का जो मार्ग है, उसे आर्य कहते हैं, उसे बुद्धिमान पुरुष ग्रहण करें, वह मार्ग कैसा है ? सो शास्त्रकार बताते हैं वह मार्ग सभी कुतीर्थिक धर्मों से दूषित करने योग्य नहीं है, क्योंकि वह धर्म अपनी महिमा से ही निन्दा के अयोग्य और उत्तमता को प्राप्त है अथवा वह धर्म, सभी धार्मिक क्रियाओं से अगोपित है अर्थात् कोई भी बुरी क्रिया न होने से वह प्रकट ॥१३॥
-सुधर्मपरिज्ञानं च यथा भवति तद्दर्शयितुमाह
- मनुष्य को उत्तम धर्म का ज्ञान जिस प्रकार होता है, उसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैंसह संमइए णच्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा । समुट्ठिए उ अणगारे, पच्चक्खायपावए
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छाया - सह सन्मत्या ज्ञात्वा, धर्मसारं श्रुत्वा वा । समुपस्थितस्त्वनगारः प्रत्याख्यातपापकः ॥ अन्वयार्थ - ( सह संमइए) अच्छी बुद्धि के द्वारा (सुणेतु वा) अथवा सुनकर (धम्मसारं ) धर्म के सच्चे स्वरूप को (णच्चा) जानकर (समुवट्ठिए अणगारे ) आत्मा की उन्नति करने में तत्पर साधु, ( पच्चक्खायपावए) पाप का प्रत्यख्यान करके निर्मल आत्मावाला होता है ।
भावार्थ - निर्मल बुद्धि के द्वारा अथवा गुरु आदि से सुनकर, धर्म के सत्य स्वरूप को जानकर, ज्ञान आदि गुणों के उपार्जन में प्रवृत्त साधु पाप को छोड़कर निर्मल आत्मावाला होता है ।
टीका - धर्मस्य सारः - परमार्थो धर्मसारस्तं 'ज्ञात्वा' अववुद्धय, कथमिति दर्शयति- सह सन्-मत्या स्वमत्या वा-विशिष्टाभिनिबोधिकज्ञानेन श्रुतज्ञानेनावधिज्ञानेन वा, स्वपरावबोधकत्वात् ज्ञानस्य, तेन सह धर्मस्य सारं ज्ञात्वेत्यर्थः, अन्येभ्यो वा - तीर्थकरगणधराचार्यादिभ्यः इलापुत्रवत् श्रुत्वा चिलातपुत्रवद्वा धर्मसारमुपगच्छति, धर्मस्य वा सारं चारित्रं तत्प्रतिपद्यते, तत्प्रतिपत्तौ च पूर्वोपात्तकर्मक्षयार्थं पण्डितवीर्यसम्पन्नो रागादिबन्धनविमुक्तो बालवीर्यरहित उत्तरोत्तरगुणसम्पत्तये समुपस्थितोऽनगारः प्रवर्धमानपरिणामः प्रत्याख्यातं - निराकृतं पापकं - सावद्यानुष्ठानरूपं येनासौ प्रत्याख्यानपापको भवतीति ॥१४॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ धर्म का सार यानी परमार्थ ( सच्चे स्वरूप) को जानकर, (प्र.) किस प्रकार ? ( उ ) वह बताते 1. नेदं प्र० । 2. सउर्म० प्र० । 3. स्वमत्यपेक्षया ।
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