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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा ११-१२ श्रीवीर्याधिकारः है। तथा वह, पापों को दूर करके उनके मूल कारण आश्रवों को हटाकर लगे हुए काँटे की तरह बाकी रहे हए कर्मों को (जो आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं) निःशेष उखाड फेंकता है। यह पाठान्तर है। इसका अर्थ यह है कि वह पुरुष लगे हुए कांटे की तरह अपने आत्मा के आठ प्रकार के कर्मों का छेदन करता है ॥१०॥ - यदुपादाय शल्यमपनयति तद्दर्शयितुमाह वह पुरुष जिसके आश्रय से शल्यरूप कर्मों का छेदन करता है, उसे दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैनेयाउयं सुयक्खायं, उवादाय समीहए। भुज्जो भुज्जो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा ॥११॥ छाया - नेतारं स्वारख्यातमुपादाय समीहते । भूयो भूयो दुःखावासमशुभत्वं तथा तथा ॥ अन्यवार्थ - (नेयाउयं सुयक्खाय) सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र को तीथङ्करों ने मोक्ष का नेता (मोक्ष देनेवाला) कहा है (उवादाय द्वान् पुरुष, उसे ग्रहणकर मोक्ष के लिए उद्योग करते हैं (भुज्जो मुज्जो दुहावासं) बाल वीर्य बार-बार दुःख देता है (तहा तहा असुहत्तं) बालवीर्य्यवाला पुरुष ज्यों ज्यों दुःख भोगता है, त्यों त्यों उसके अशुभ विचार ही बढ़ते हैं। . भावार्थ - सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र मोक्ष को प्राप्त करानेवाले हैं, यह तीर्थक्करों ने कहा है, इसलिए बुद्धिमान पुरुष इन्हें ग्रहण कर मोक्ष की चेष्टा करते हैं । बालवीर्य, जीव को बार-बार दुःख देता है और ज्यों ज्यों बालवीर्य्यवाला जीव दुःख भोगता है, त्यों त्यों उसके अशुभ विचार बढ़ते जाते हैं। टीका - नयनशीलो नेता, नयतेस्ताच्छीलिकस्तृन्, स चात्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गः श्रुतचारित्ररूपो वा धर्मो मोक्षनयनशीलत्वान् गृह्यते, तं मार्ग धर्म वा मोक्षं प्रति नेतारं सुष्टु तीर्थकरादिभिराख्यातं स्वाख्यातं तम्'उपादाय' गृहीत्वा 'सम्यग्' मोक्षाय ईहते-चेष्टते ध्यानाध्ययनादावुद्यमं विधत्ते, धर्मध्यानारोहणालम्बनायाह-'भूयो भूयः' पौनःपुन्येन यदालवीयं तदतीतानागतानन्तभवग्रहणेषु (ग्र० ५०००) दुःखमावासयतीति दुःखावासं वर्तते, यथा यथा च बालवीर्यवान् नरकादिषु दुःखावासेषु पर्यटति तथा तथा चास्याशुभाध्यवसायित्वादशुभमेव प्रवर्धते इत्येवं संसारस्वरूपमनुप्रेक्षमाणस्य धर्मध्यानं प्रवर्तत इति ॥११॥ टीकार्थ - जो अच्छे रास्ते से ले जाता है, उसे नेता या नायक कहते हैं (यहां 'नेता' पद में ताच्छीलिक तृन् प्रत्यय हुआ है) वह नेता यहाँ सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग है अथवा श्रुत और चारित्ररूप धर्म का यहाँ नेता पद से ग्रहण होता है क्योंकि वह जीव को मोक्ष में ले जाता है। उस मार्ग को तीर्थङ्करों ने मोक्ष का नेता कहा है। अतः बुद्धिमान् पुरुष उसे ग्रहण करके ध्यान और अध्ययन आदि में प्रयत्न करते हैं। अब शास्त्रकार जीव को धर्मध्यान पर चढ़ने के लिए कहते हैं (बुद्धिमान् पुरुष यह सोचे कि) बालवीर्य्य अतीत और अनागत अनन्त भवों में बार-बार दुःखावास है अर्थात् बालवीर्यवाला ज्यों-ज्यों नरक आदि दुःख स्थानों में भटकता फिरता है, त्यों-त्यों उसका अशुभ अध्यवसाय होने से अशुभ कर्म ही बढ़ता है । इस प्रकार जो पुरुष संसार का दुःखमय स्वरूप विचारता है, उसका धर्मध्यान में चित्त जमता है, उसे ही धर्म ध्यान कहते हैं ॥११॥ - साम्प्रतमनित्यभावनामधिकृत्याह - अब शास्त्रकार अनित्य भावना के विषय में कहते हैंठाणी विविहठाणाणि, चइस्संति ण संसओ। अणियते अयं वासे, णायएहि सुहीहि य ॥१२॥ 1. अनिइए य संवासे इति पाठो व्याख्याकृत्मतः, एवं च चकारावित्यादे संगतियाख्यापाठस्य । ४०३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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