________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा १०
श्रीवीर्याधिकारः (अपकारसमेन) अपकार का बराबर बदला लेने से शक्तिमान् मनुष्य की तृप्ति नहीं होती है, अतःशत्रु को अधिक पीड़ा देनी चाहिए, यहाँ तक कि-जितने दुश्मन है, सभी को उखाड़ डालना चाहिए (जिससे कोइ फिर सम्मुख न आवे)
इस प्रकार कषाय के वशीभूत पुरुष ऐसा चिंतन कर ऐसे कार्य करते हैं. जिससे बेटे और पोते आदि में भी वैर चलता रहता है । सो इस प्रकार सकर्मी (पाप) अज्ञानियों का तथा 'च' शब्द से प्रमादी पुरुषों का वीर्य्य (बहादुरी) कहा गया है। अब यहां से पण्डितों का वीर्य्य मैं बताता हूं सो तुम सुनो ॥९॥
- यथाप्रतिज्ञातमेवाह
- अब शास्त्रकार अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कहते हैदव्विए बंधणुम्मुक्के, सव्वओ छिन्नबंधणे । पणोल्लं पावकं कम्मं सल्लं कंतति अंतसो
॥१०॥ छाया - द्रव्यो बन्धनान्मुक्तः, सर्वतश्छिलबन्धनः । प्रणुध पापकं कर्म, शल्यं कृन्तत्यन्तशः ॥
अन्यवार्थ - (दविए) मुक्ति जाने योग्य पुरुष (बंधणुम्मुक्के) बन्धन से मुक्त (सव्वओ छिन्नबंधणे) तथा सब प्रकार से बन्धन को नष्ट किया हुआ (पावकं कर्म पणोल्लं) पापकर्म को छोडकर (अंतसो सल्लं किंतति) अपने समस्त कमों को नष्ट कर देता है।
भावार्थ - मुक्ति जाने योग्य पुरुष सब प्रकार के बन्धनों को काटकर एवं पापकर्म को दूर करके अपने आठ प्रकार के कर्मों को काट डालता है।
टीका - 'द्रव्यो' भव्यो मुक्तिगमनयोग्यः 'द्रव्यं च भव्ये' इति वचनात् रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यभूतोऽकषायीत्यर्थः, यदिवा वीतराग इव वीतरागोऽल्पकषाय इत्यर्थः, तथा चोक्तम्"किं सका वो जे सरागधम्ममि कोई अकसायी । संतेवि जो कसाए निगिण्हइ सोऽवि तत्तुल्लो ||१||"
___ स च किम्भूतो भवतीति दर्शयति बन्धनात्-कषायात्मकान्मुक्तो बन्धनोन्मुक्तः, बन्धनत्वं तु कषायाणां कर्मस्थिति-हेतुत्वात्, तथा चोक्तम्- 'बंधट्ठिई" 'कसायवसा" कषायवशात् इति, यदिवा बन्धनोन्मुक्त इव बन्धनोन्मुक्तः, तथाऽपरः 'सर्वतः' सर्वप्रकारेण सूक्ष्मबादररूपं 'छिन्नम्'अपनीतं 'बन्धन' कषायात्मकं येन स छिन्नबन्धनः, तथा 'प्रणुद्य' प्रेर्य 'पापंः कर्म कारणभूतान्वाऽऽश्रवानपनीय शल्यवच्छल्यं-शेषकं कर्म तत् कृन्तति-अपनयति अन्तशोनिरवशेषतो विघटयति, पाठान्तरं वा 'सल्लं कंतइ अप्पणो'त्ति शल्यभूतं यदष्टप्रकारं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कृन्ततिछिनत्तीत्यर्थः ॥१०॥
टीकार्थ - मक्ति जाने योग्य भव्य पुरुष को 'द्रव्य' कहते है क्योंकि "द्रव्यं च भव्ये" यह पाणिनि का सूत्र है। (भव्य अर्थ में द्रव्य पद का प्रयोग होता है, यह इसका अर्थ हैं) अथवा रागद्वेष रहित होने के कारण जो पुरुष द्रव्यभूत यानी कषाय रहित है, वह द्रव्य है अथवा जो पुरुष वीतराग के समान अल्प कषायवाला है उसे द्रव्य कहते हैं, जैसाकि कहा है
(किं सक्का) अर्थात् सराग धर्म में रहनेवाला (छट्ठा सातवाँगुणस्थानवाला) कोई पुरुष कषाय रहित है क्या यह कहा जा सकता है ? उत्तर हाँ, कषाय होने पर भी जो पुरुष उनको उदय में आने से दबा देता है, वह भी वीतराग के समान ही है ।
वह पुरुष कैसा होता है ? सो शास्त्रकार दिखलाते हैं, वह पुरुष, कषायरूप बन्धन से मुक्त (छुटा हुआ) है, क्योंकि कषाय होनेपर ही कर्म का स्थितिकाल बँधता है इसलिए कषाय ही बन्धन है। जैसा कि कहा है "बंधट्टिई कसायवसा" अर्थात् बन्धन की स्थिति कषाय के वश है । अथवा वह पुरुष बन्धन से छुटे हुए पुरुष के समान होने के कारण बन्धन से मुक्त है । तथा वह, दूसरे सूक्ष्म और बादररूप कषायों को छेदन करने के कारण छिन्नबन्धन 1. किं शक्या वक्तुं यत्सरागधर्मे कोऽप्यकषायः । सतोऽपि यः कषायात्रिगुहाति सोऽपि तत्तुल्यः ।।१॥ 2. बन्धस्थिति कषायवशात् ।।
४०२