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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा ९ श्रीवीर्याधिकारः भावार्थ - स्वयं पाप करनेवाले जीव, साम्परायिक कर्म बाँधते हैं। तथा रागद्वेष के स्थानभूत वे अज्ञानी बहुत पाप करते हैं टीका 'सम्परायं णियच्छंती' त्यादि, द्विविधं कर्म - ईर्यापथं साम्परायिकं च, तत्र सम्पराया - बादरकषायास्तेभ्य आगतं साम्परायिकं तत् जीवोपमर्द्दकत्वेन वैरानुषङ्गितया 'आत्मदुष्कृतकारिणः' स्वपापविधायिनः सन्तो 'नियच्छन्ति' बध्नन्ति तानेव विशिनष्टि - 'रागद्वेषाश्रिताः' कषायकलुषितान्तरात्मानः सदसद्विवेकविकलत्वात् बाला इव बालाः, ते चैवम्भूताः 'पापम्' असद्वेद्यं 'बहु' अनन्तं 'कुर्वन्ति' विदधति ॥८॥ - टीकार्थ कर्म दो प्रकार के हैं- ईर्य्यापथ और साम्परायिक । सम्परायनाम बादरकषाय का है ( वह बहुत क्रोध वगैरह है) उससे दुष्ट कृत्य होता है तथा जीवों की हिंसा होती है और कर्म बाँधा जाता । स्वंय पाप करके जीव, इस कर्म को बाँधता है । उन पाप करनेवाले पुरुषों का विशेषण बताते हैं- राग और द्वेष के आश्रय, तथा कषाय से मलिन आत्मावाले पुरुष सद् और असत् के विवेक से हीन होने के कारण बालक के समान अज्ञानी हैं, वे मूर्ख जीव बहुत पाप करते हैं । - • एवं बालवीर्यं प्रदर्श्वोपसंजिघृक्षुराह इस प्रकार बालवीर्य्य का वर्णन करके अब उसकी समाप्ति करने के लिए शास्त्रकार कहते हैंएयं सकम्मवीरियं, बालाणं तु पवेदितं । इत्तो अकम्मविरियं, पंडियाणं सुणेह मे 11811 छाया - एतत् सकर्मवीय्यं, बालानान्तु प्रवेदितम् । अतोऽकर्मवीर्य्य पण्डितानां शृणुत मे ॥ अन्वयार्थ - (एयं) यह (बालाणं तु) अज्ञानियों का (सकम्मवीरियं) सकर्मवीर्य्य (पवेदितं ) कहा गया है ( इत्तो) अब यहां से (पडियानं ) उत्तम साधुओं का (अकम्मवीरियं) अकर्मवीर्य्य (मे) मेरे से (सुणेह) सुनो । भावार्थ - यह अज्ञानियों का सकर्मवीर्य्यं कहा गया है, अब यहां से पण्डितों का अकर्मवीर्य्य मेरे से सुनो । टीका - 'एतत्' यत् प्राक् प्रदर्शितं, तद्यथा-प्राणिनामतिपातार्थं शस्त्रं, शास्त्रं वा केचन शिक्षन्ते, तथा परे विद्यामन्त्रान् प्राणिबाधकानधीयते, तथाऽन्ये मायाविनो नानाप्रकारां मायां कृत्वा कामभोगार्थमारम्भान् कुर्वते, केचन पुनरपरे वैरिणस्तत्कुर्वन्ति येन वैरैरनुबध्यन्ते (ते) तथाहि - जमदग्निना स्वभार्याऽकार्यव्यतिकारे कृतवीर्यो विनाशितः, तत्पुत्रेण तु कार्तवीर्येण पुनर्जमदग्निः, जमदग्निसुतेन परशुरामेण सप्त वारान् निःक्षत्रा पृथिवी कृता, पुनः कार्तवीर्यसुतेन तु सुभूमेन त्रिः सप्तकृत्वो ब्राह्मणा व्यापादिताः, तथा चोक्तम् “ अपकारसमेन कर्मणा न नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरु वै (as ) रियातनां द्विषतां जातमशेषमुद्धरेत् ||9||” तदेवं कषायवशगाः प्राणिनस्तत्कुर्वन्ति येन पुत्रपौत्रादिष्वपि वैरानुबन्धो भवति, तदेतत्सकर्मणां बालानां वीर्यं तुशब्दात्प्रमादवतां च प्रकर्षेण वेदितं प्रवेदितं प्रतिपादितमितियावत्, अत ऊर्ध्वमकर्मणां पण्डितानां यद्वीर्यं तन्मे-मम कथयतः शृणुत यूयमिति ॥९॥ - टीकार्थ यह जो पहले कहा गया है कि प्राणियों का घात करने के लिए कोई शस्त्र और कोई शास्त्र सीखते हैं तथा दूसरे, प्राणियों को पीड़ा देनेवाली विद्या और मन्त्रों का अध्ययन करते हैं, एवं कितने कपटी नाना प्रकार के कपट करके कामभोग के लिए आरम्भ करते हैं तथा कितने ही ऐसा कर्म करते हैं कि वे वैर की परम्परा बाँधते हैं, जैसे कि - जमदग्नि ने उनकी स्त्री के साथ अनुचित व्यवहार करने के कारण कृतवीर्य्य को जान से मार डाला था और इस वैर के कारणकृतवीर्य्य के पुत्र कार्तवीर्य्य ने जमदग्नि को मार डाला फिर जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने सातवार पृथिवी को क्षत्रिय रहित कर दिया, फिर कार्तवीर्य्य के पुत्र सुभूम ने ईक्कीस बार बाह्मणों का विनाश किया था । कहा है कि ४०१
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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