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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा ७-८
श्रीवीर्याधिकारः पर मन से (आरओ परओ वावि) इस लोक और परलोक दोनों के लिए (दुहावि) करने और कराने दोनों प्रकार से जीवों का घात कराते हैं।
भावार्थ - असंयमी पुरुष मन, वचन और काय से तथा काय की शक्ति न होने पर मन वचन से इस लोक और परलोक दोनों के लिए स्वयं प्राणियों का घात करते हैं और दूसरे के द्वारा भी कराते हैं।
टीका - तदेतत्प्राण्युपमर्दनं मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिभिश्च 'अन्तशः' कायेनाशक्तोऽपि तन्दुलमत्स्यवन्मनसैव पापानुष्ठानानुमत्या कर्म बध्नातीति, तथा आरतः परतश्चेति लौकिकी वाचोयुक्तिरित्येवं पर्यालोच्यमाना ऐहिकामुष्मिकयोः 'द्विधापि' स्वयंकरणेन परकरणेन चासंयता-जीवोपघातकारिण इत्यर्थः ॥६॥
____टीकार्थ - असंयमी पुरुष मन, वचन और शरीर से तथा करने, कराने और अनुमोदन करने से प्राणियों का घात करते हैं। वे शरीर की शक्ति न होने पर भी तन्दल मत्स्य की तरह मन से ही पाप करके क तथा लौकिक शास्त्रों की यह युक्ति है, यह विचार कर इस लोक और परलोक के लिए स्वयं जीवघात करते हैं और दूसरे से भी कराते हैं ॥६॥
- साम्प्रतं जीवोपघातविपाकदर्शनार्थमाह
- जीवहिंसा करने का फल बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैंवेराई कुव्वई वेरी, तओ वेरेहिं रज्जती। पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो
॥७॥ छाया - वैराणि करोति वैरी, ततो वैरे रज्यते । पापोपगा आरम्भाः, दुःखस्पर्शा अन्तशः ॥
अन्वयार्थ - (वेरी वेराई कुव्वई) जीव घात करनेवाला पुरुष, अनेक जन्म के लिए जीवों के साथ वैर करता है (तओ वेरेहिं रज्जती) फिर वह नया वैर करता है (आरंभा य पावोवगा) जीवहिंसा पाप उत्पन्न करती है (अंतसो दुक्खफासा) और अन्त में दुःख देती है।
भावार्थ - जीव हिंसा करनेवाला पुरुष उस जीव के साथ अनेक जन्म के लिए वैर बांधता है क्योंकि दूसरे जन्म में वह जीव इसे मारता है और तीसरे जन्म में यह उसे मारता है, इस प्रकार इनकी परस्पर वैर की परम्परा चलती रहती है । तथा जीवहिंसा पाप उत्पन्न करती है । और इसका विपाक दुःख भोगना होता है ।
टीका - वैरमस्यास्तीति वैरी. स जीवोपमईकारी जन्मशतानबन्धीनि वैराणि करोति. ततोऽपि च वैरादपरैवैरैरनुरज्यते-संबध्यते, वैरपरम्परानुषङ्गी भवतीत्यर्थः, किमिति ?, यतः पापं उप-सामीप्येन गच्छन्तीति पापोपगाः, क एते?- 'आरम्भाः' सावद्यानुष्ठानरूपाः 'अन्तशो' विपाककाले दुःखं स्पृशन्तीति दुःखस्पर्शा-असातोदयविपाकिनो भवन्तीति ॥७॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - जो वैरवाला है, उसे वैरी कहते हैं । वह जीवों का घात करनेवाला पुरुष, सैकडों जन्मों तक चलनेवाला वैर उत्पन्न करता है । उस एक वैर के कारण फिर वह अनेको वैरों से पकड़ा जाता है, अर्थात् वह वैर परम्परा का पात्र होता है क्योंकि सावधानुष्ठान, पाप के साथ चलते हैं और वे विपाक काल में दुःख उत्पन्न करते हैं अर्थात् इनका विपाक असातावेदनीय का उदय होता है ॥७॥
संपरायं णियच्छंति, अत्तदुक्कडकारिणो। रागदोसस्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहु
॥८॥ छाया - सम्परायं नियच्छन्त्यात्मदुष्कृतकारिणः । रागद्वेषाश्रिता बालाः, पापं कृर्वन्ति ते बहु ॥
अन्वयार्थ - (अत्तदुक्कडकारिणो) स्वयं पाप करनेवाला जीव, (संपरायं णियच्छंति) साम्परायिक कर्म बांधते है (रागदोसस्सिया ते बाला बहु पावं कुव्वंति) तथा राग और द्वेष के आश्रय से वे अज्ञानी जीव बहुत पाप करते है।
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