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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा ५-६
श्रीवीर्याधिकारः सत्थं असिमादयं विज्जामते य देवकम्मकयं । पत्थिवयारूणअग्गेय याऊ तह मीसगं चेत् ॥९८॥ नि
शस्त्रं-प्रहरणं तच्च असिः- खड्गस्तदादिकं तथा विद्याधिष्ठितं, मन्त्राधिष्ठितं देवकर्मकृतं दिव्यक्रियानिष्पादितं तच्च पञ्चविधं, तद्यथा-पार्थिवं वारुणमाग्नेयं वायव्यं तथैव द्वयादिमिश्रं चेति ॥९८॥ किञ्चान्यत्
हथियार को शस्र कहते हैं, वह तलवार आदि, तथा विद्याधिष्ठितं, मन्त्राधिष्ठितं, देवकर्मकृत, और दिव्यक्रिया से उत्पन्न किया हुआ होता है। वह पांच प्रकार का है जैसे कि- पार्थिव, वारूण, आग्नेय, वायव्य तथा दो आदि से मिश्रित ।
माइणो कटु माया य, कामभोगे समारभे । हंता छेत्ता पगब्भित्ता, आयसायाणुगामिणो छाया - मायिनः कृत्वा मायाश्च, कामभोगान् समारम्भन्ते । हन्तारच्छेत्तारः प्रकर्तयितार आत्मसातानुगामिनः ॥
अन्वयार्थ - (माइणो माया क१) माया करनेवाले पुरुष माया यानी छल कपट करके (कामभोग समारभे) काम भोग का सेवन करते है (आयसायाणुगामिणो) तथा अपने सुख की इच्छा करनेवाले वे, (हंता छेता पगब्मित्ता) प्राणियों का हनन, छेदन और कर्तन (चीरना) करते हैं।
भावार्थ - कपटी जीव कपट के द्वारा दूसरे का धनादि हरकर विषय सेवन करते हैं तथा अपने सुख की इच्छा करनेवाले वे, प्राणियों का हनन, छेदन और कर्त्तन करते हैं।
टीका - 'माया' परवञ्चनादि(त्मि)का बुद्धिः सा विद्यते येषां ते मायाविनस्त एवम्भूता मायाः-परवञ्चनानि कृत्वा एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणादेव क्रोधिनो मानिनो लोभिनः सन्तः 'कामान्' इच्छारूपान् तथा भोगांश्च शब्दादिविषयरूपान् ‘समारभन्ते' सेवन्ते पाठान्तरं वा 'आरंभाय तिवट्टइ' त्रिभिः मनोवाक्कायैरारम्भार्थं वर्तते, बहून् जीवान् व्यापादयन् बध्नन् अपध्वंसयन् आज्ञापयन् भोगार्थी वित्तोपार्जनार्थं प्रवर्तत इत्यर्थः, तदेवम् 'आत्मसातानुगामिनः' स्वसुखलिप्सवो दुःखद्विषो विषयेषु गृद्धाः कषायकलुषितान्तरात्मानः सन्त एवम्भूता भवन्ति, तद्यथा-'हन्तारः' प्राणिव्यापादयितारस्तथा छेत्तारः कर्णनासिकादेस्तथा प्रकर्तयितारः पृष्ठोदरादेरिति ॥५॥
टीकार्थ - दूसरे को ठगने की बुद्धि माया कही जाती है । वह बुद्धि जिस जीव में होती है, उसको मायावी कहते हैं । इस प्रकार माया के द्वारा दूसरे को ठगकर मायावी पुरुष विषय का सेवन करते हैं । एक के ग्रहण से उसके जातिवाले सभी का ग्रहण होता है, इसलिए क्रोधी, मानी, और लोभी जीव शब्दादि विषयों का सेवन करते हैं । यह अर्थ भी जानना चाहिए । यहां "आरम्भाय तिवट्टइ" यह पाठान्तर भी मिलता है । इसका अर्थ यह है- वह भोगार्थी पुरुष, मन, वचन, और काय से आरम्भ में वर्तमान रहता है । वह बहुत जीवों को मारता है, बाँधता है, नाश करता है तथा आज्ञापालन कराता है, इस प्रकार वह धन उपार्जन के लिए तत्पर रहता है । इस प्रकार अपने सुख की इच्छा करनेवाले और दुःख से द्वेष रखनेवाले, विषय भोग में आसक्त, कषायों से मलिन हृदयवाले पुरुष इस प्रकार पाप करते हैं, जैसे कि- वे प्राणियों का घात करते हैं, तथा उनके कान और नाक आदि काटते हैं एवं उनके पेट और पीठ आदि काटते हैं ॥५॥
- तदेतत्कथमित्याह
- यह सब किस प्रकार करते हैं, सो शास्त्रकार बतलाते हैंमणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो । आरओ परओ वावि, दुहावि य असंजया
॥६॥ छाया - मनसा वचसा चैव, कायेन चैवान्तशः । भारतः परतोवाऽपि चासंयताः ॥ अन्वयार्थ - (असंजया) असंयमी पुरुष, (मणसा वयसा चेव कायसा चेव) मन, वचन और काय से (अंतसो) एवं काय की शक्ति न होने
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