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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा ४
श्रीवीर्याधिकारः एगे मंते अहिज्जति, पाणभयविहेडियो
॥४॥ छाया - शास्त्रमेके तु शिक्षन्ते, ऽतिपाताय प्राणिनाम् । एके मब्बानधीयते प्राणभूतविहेडकान् ॥
अन्वयार्थ - (एगे पाणिणं अतिवायाय) कोई प्राणियों का वध करने के लिए (सत्थं) तलवार आदि शस्त्र अथवा धनुर्वेदादि (सिक्खंता) सीखते। है (एगे पाणभूयविहेडिणो) तथा कोई प्राणी और भूतों को मारनेवाले (मंते अहिज्जति) मन्त्रों को पढ़ते हैं।
भावार्थ - कोई बालजीव, प्राणियों का नाश करने के लिए शस्त्र तथा धनुर्वेदादि शास्रों का अभ्यास करते हैं और कोई प्राणियों का विनाशक मन्त्रों का अध्ययन करते हैं।
टीका - शस्त्रं-खङ्गादिप्रहरणं शास्त्रं वा धनुर्वेदायुर्वेदिकं प्राण्युपमईकारि तत् सुठु सातगौरवगृद्धा 'एके' केचन 'शिक्षन्ते' उद्यमेन गृह्णन्ति, तच्च शिक्षितं सत् 'प्राणिनां' जन्तुनां विनाशाय भवति, तथाहि-तत्रोपदिश्यते एवंविधमालीढप्रत्यालीढादिभिर्जीवे व्यापादयितव्ये स्थान विधेयं, तदुक्तम्"मुष्टिनाऽऽच्छादयेल्लक्ष्य, मुष्टौ दृष्टिं निवेशयेत् । हतं लक्ष्यं विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते ।।१।।"
तथा एवं लावकरसः क्षयिणे देयोऽभयारिष्टाख्यो मद्यविशेषश्चेति, तथा एवं चौरादेः शूलारोपणादिको दण्डो विधेयः तथा चाणक्याभिप्रायेण परो वञ्चयितव्योऽर्थोपादानार्थं तथा कामशास्त्रादिकं चोद्यमेनाशुभाध्यवसायिनोऽधीयते, तदेवं शस्त्रस्य धनुर्वेदादेः शास्त्रस्य वा यदभ्यसनं तत्सर्व, बालवीर्य, किञ्च एके केचन पापोदयात् मन्त्रानभिचारकाना(ते)थर्वणानश्वमेधपुरुषमेधसर्वमेधादियागार्थमधीयते, किम्भूतानिति दर्शयति-'प्राणा' द्वीन्द्रियादयः 'भूतानि' पृथिव्यादीनि तेषां 'विविधम्' अनेकप्रकारं 'हेठकान्' बाधकान् ऋक्संस्थानीयान् मन्त्रान् पठन्तीति, तथा चोक्तम्“षद शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभित्रिभिः ||१||"
इत्यादि ॥४॥
टीकार्थ - सुख और गौरव में आसक्त कोई पुरुष प्राणियों के विनाश करनेवाले तलवार आदि शस्त्रों तथा धनुर्वेद आदि शास्त्रों को उत्साह के साथ सीखते हैं। अन्त में सीखी हुई वह विद्या, प्राणियों के घात के लिए होती है। क्योंकि उक्त विद्या में यह शिक्षा दी जाती है कि- जीव को मारने के लिए इस प्रकार आलीढ और प्रत्यालीढ होकर ठहरना चाहिए । जैसा कि कहा है
"जिसे मारना हो उसको मुट्ठी से ढंक देवे और मुट्ठी के ऊपर अपनी दृष्टि रखे, इस प्रकार बाण छोड़ने पर यदि अपना शिर न हिले तो लक्ष्य को विंधा हुआ जानना चाहिए।"
तथा वैद्यक शास्त्र में इस प्रकार कहा है कि- लावक पक्षी का रस क्षय रोगवाले को देना चाहिए तथा अभय अरिष्ठ जो एक प्रकार का मद्य है, वह उसे देना चाहिए । तथा दण्डनीति में कहा है कि- चोर को इस प्रकार शूलीपर चढ़ाना चाहिए । एवं चाणक्य के शास्त्र में इस प्रकार कहा कि- धन लेने के लिए दूसरे को ठगना चाहिए। अत: इन शास्त्रों को तथा कामशास्त्र को अशुभ विचारवाले पुरुष पढ़ते हैं । इस प्रकार शस्त्र और धनुर्वेद आदि शास्त्रों का अभ्यास बालवीर्य्य जानना चाहिए। तथा कोई पुरुष पाप के उदय से प्राणियों के घातक अथर्ववेद के मन्त्रों को अश्वमेध, पुरुषमेध, और सर्वमेध यज्ञों के निमित्त पढ़ते हैं । वे मन्त्र कैंसे हैं ? सो शास्त्रकार दिखलाते
णी तथा पृथिवी आदि भूतों को अनेक प्रकार से कष्ट देनेवाले ऋग्वेद के मन्त्रों को अशुभ विचारवाले पढ़ते हैं । इनके विषय में कहा है कि
(षट्शतानि) अर्थात् अश्वमेध यज्ञ के वचनानुसार बीच के दिन में तीन कम छ: सौ पशु मारने के लिए तैयार रखना चाहिए ॥४॥
- अधुना 'सत्थ' मित्येतत्सूत्रपदं सूत्रस्पर्शिकया नियुक्तिकारः स्पष्टयितुमाह
- अब नियुक्तिकार शस्त्र शब्द को स्पर्श करनेवाली गाथा के द्वारा सूत्र के शस्त्रपद को स्पष्ट करने के लिए कहते हैं३९८