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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा ३
श्रीवीर्याधिकारः - इह बालवीर्य कारणे कार्योपचारात्कमव वीर्यत्वेनाभिहितं, साम्प्रतं कारणे कार्योपचारादेव प्रमादं कर्मत्वेनापदिशन्नाह
- यहां शास्त्रकार ने कारण में कार्य का उपचार करके कर्म को ही बालवीर्य कहा है, अब कारण में कार्य का उपचार करके ही प्रमाद को कर्मरूप से बताते हैंपमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा
॥३॥ छाया - प्रमादं कर्ममाहुरप्रमादं तथाऽपरम् । तदावादेशतो वाऽपि बालं पण्डितमेव वा ॥
अन्वयार्थ - (पमायं कम्ममाहंसु) तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्म कहा है (तहा अप्पमार्य अवर) तथा अप्रमाद को अकर्म कहा है (तब्मावादेसओ वावि) इन दोनों की सत्ता से ही (बालं पंडियमेव वा) बालवीर्य या पण्डितवीर्य होता है।
भावार्थ - तीर्थकरो ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है। अतः प्रमाद के होने से बालवीर्य और अप्रमाद के होने से पण्डितवीर्य होता है।
टीका - प्रमाद्यन्ति-सदनुष्ठानरहिता भवन्ति प्राणिनो येन स प्रमादो-मद्यादिः, तथा चोक्तम्“मज्जं विसयकसाया णिहा विगहा य पंचमी भणिया । एस पमायपमाओ णिविठ्ठो वीयरागेहिं ||१||"
तमेवम्भूतं प्रमादं कर्मोपादानभूतं कर्म 'आहुः उक्तवन्तस्तीर्थकरादयः. अप्रमादं चं तथाऽपरमकर्मकमाहुरिति, एतदुक्तं भवति-प्रमादोपहतस्य कर्म बध्यते, सकर्मणश्च यत्क्रियानुष्ठानं तद्बालवीय, तथाऽप्रमत्तस्य कर्माभावो भवति,एवंविधस्य च पण्डितवीर्यं भवति, एतच्च बालवीर्यं पण्डितवीर्यमिति वा प्रमादवतः सकर्मणो बालवीर्यमप्रमत्तस्याकर्मणः पण्डितवीर्यमित्येवमायोज्यं, 'तब्भावादेसओ वावी' ति तस्य-बालवीर्यस्य कर्मणश्च पण्डितवीर्यस्य वा भाव:-सत्ता स तद्धावस्तेनाऽऽदेशो-व्यपदेशः ततः, तद्यथा-बालवीर्यमभव्यानामनादि-अपर्यवसितं भव्यानामनादिसपर्यवसितं वा सादिसपर्यवसितं वेति, पण्डितवीयं तु सादिसपर्यवसितमेवेति ॥३॥
टीकार्थ - प्राणि वर्ग जिसके द्वारा उत्तम अनुष्ठान से रहित होते हैं, वह प्रमाद है, वह मद्य आदि है, जैसा कि कहा है
(मज्ज) अर्थात् मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और चारित्र को दूषित करनेवाली कथायें [विकथा] ये पांच प्रमाद जिनवरों ने कहे हैं।
तीर्थकरों ने कर्म के कारणरूप इन पांच प्रमादों को कर्म कहा है, और अप्रमाद को अकर्म कहा है । प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहने का परमार्थ कहा है कि प्रमाद के कारण भान रहित होकर जीव कर्म बाँधता है । उस कर्म सहित जीव का जो क्रियानुष्ठान है, वह बालवीर्य्य है । तथा प्रमाद रहित पुरुष के कर्त्तव्य में कर्म का अभाव है, अतः उस पुरुष का कार्य, पण्डितवीर्य्य है । इस प्रकार जो पुरुष प्रमादी और सकर्मा है, उसका बालवीयं समझना चाहिए और जो अप्रमादी और अकमा है, उसका पण्डितवीर्य जानना चाहिए। इन दोनों वीर्यों की सत्ता से अर्थात् बालवीर्य्य और पण्डितवीर्य्य के होने से बाल और पण्डित यह व्यवहार होता है। इनमें अभव्य जीवों का बालवीर्य्य अनादि और अनन्त होता है और भव्य जीवों को अनादि होकर सान्त होता है तथा सादि और सान्त भी होता है परन्तु पण्डितवीर्य्य सादि और सान्त ही होता है ॥३॥
- तत्र प्रमादोपहतस्य सकर्मणो यद्वालवीयं तद्दर्शयितुमाह
- प्रमाद से मूढ़, सकर्मी यानी पापी पुरुष का जो बालवीर्य्य (अधमकृत्य) है, उसे दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैंसत्थमेगे तु सिक्खंता, अतिवायाय पाणिणं । 1. मद्यं विषया कषाया विकथा निद्रा च पंचमी भणिता (एत्ते पंच प्रमादा निर्दिष्टा) एष प्रमादप्रमादो निर्दिष्टो वीतरागैः ॥१॥
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