SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने गाथा १ श्रीवीर्याधिकारः रखता है कि "मैं किसी प्रकार अपने संयम में अतिचार न लगने दूं" सो यह संयमवीर्य्य है । ये पूर्वोक्त सभी अध्यात्मवीर्य अर्थात् भाववीर्य हैं । (प्रश्न) वीर्य्य प्रवाद पूर्व में अनन्त प्रकार के वीर्य बताये गये हैं, सो किस रीति से ? इसका समाधान यह है कि अनन्त अर्थवाला पूर्व होता है और उसमें वीर्य का प्रतिपादन किया गया है । अनन्त अर्थ इस प्रकार समझना चाहिए (सव्वणइणं) समस्त नदियों की रेती की गणना की जाय और जितनी रेति हों उनसे भी आ पूर्व का होता है। (आशय यह है कि पूर्व में व्यवहार किये हए शब्द इतने गम्भीर होते हैं कि उनसे बहत अर्थ निकलते हैं) तथा समस्त समुद्रों का जल यदि हथेली में एकठा करके गिना जाय तो उस से भी अधिक अर्थ एक पूर्व का होगा। इस प्रकार पूर्व में अनन्त अर्थ है और वीर्य्य पूर्व का अर्थ है, इसलिए वीर्य भी अनन्त है, यह समझना चाहिए ॥९६॥ ये सभी वीर्य तीन प्रकार के हैं यह नियुक्तिकार बताते हैं ऊपर बताये हुए सभी वीर्य्य, पण्डित, बाल, और मिश्र भेद से तीन प्रकार के हैं । इनमें उत्तम साधुओं का पण्डितवीर्य्य है। बालपण्डितवीर्य गृहस्थों का है। इनमें साधुओं का पण्डितवीर्य यानी निर्मल साधुता, सादि और सान्त है क्योंकि जिस समय वे चारित्र ग्रहण करते हैं, उस समय वह आरम्भ होता है और जब वे केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में जाते हैं, उस समय धर्मानुष्ठान समाप्त हो जाने से वह सान्त कहलाता है । बालपण्डित वीर्य भी सादि और सान्त होता है क्योंकि जिस समय गृहस्थ देश विरति स्वीकार करता है अर्थात् वह यथाशक्ति ब्रह्मचर्य आदि का पालन करना आरम्भ करता है, उस समय वह आरम्भ होता है और जब वह साधुता ग्रहण करता है अथवा व्रतभङ्ग करता है तब उसका वह वीर्य्य नष्ट हो जाता है, इसलिए वह सादि और सान्त है। अविरति अर्थात् देश से भी ब्रह्मचर्य आदि पालन न करना बालवीर्य्य है, वह अभव्य जीवों का अनादि और अनन्त है तथा भव्य जीवों का अनादि और सान्त है। यदि विरति को लेकर उसका भङ्ग करे तो इस अपेक्षा से अविरति सादि है और फिर जघन्य अन्तर्मुहुर्त में चारित्र ग्रहण करे तथा उत्कृष्ट अपार्ध पुद्गलपरावर्तकाल में फिर चारित्र का उदय हो तो वह अविरति सान्त है । इस प्रकार अविरति सादि और सान्त है । सादि और अनन्त बालवीर्य्य असम्भव है। पण्डितवीर्य सर्वविरतिरूप है । वह विरति, चारित्रमोहनीय कर्म के, क्षय, क्षयोपशम से और उपशम से होने के कारण तीन प्रकार का है ॥९७।। इसलिए वीर्य्य भी तीन प्रकार का ही है, नामनिक्षेप कहा गया । अब सुत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए, वह सूत्र यह है दुहा वेयं सुयक्खायं, वीरियंति पवुच्चई। किं नु वीरस्य वीरत्तं, कहं चेयं पवुच्चई ? ॥१॥ छाया - द्विथा वेदं स्वाख्यातं वीर्यमिति प्रोच्यते । किं नु वीरस्य वीरत्वं कथशेदं प्रोच्यते ॥ अन्वयार्थ - (वयं वीरियंति पवुच्चई) यह जो वीर्य्य कहा जाता है (दुहा सुयक्खाय) इसे तीर्थकरों ने दो प्रकार का कहा है (वीरस्स वीरत्तं किं नु) वीर पुरुष की वीरता क्या है ? (कहं चेयं पवुच्चई) किस कारण वह वीर कहा जाता है ? भावार्थ- तीर्थकर और गणधरों ने वीर्य के दो भेद कहे हैं। अब प्रश्र होता है कि वीर पुरुष की वीरता क्या है ? और वह क्यों वीर कहा जाता है । टीका - द्वे विधे-प्रकारावस्येति द्विविधं-द्विप्रकारं, प्रत्यक्षासन्नवाचित्वात् इदमो यदनन्तरं प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यते वीर्यं तद्विभेदं सुष्ट्वाख्यातं स्वाख्यातं तीर्थकरादिभिः, वा वाक्यालङ्कारे, तत्र 'ईर गतिप्रेरणयोः' विशेषेण ईरयतिप्रेरयति अहितं येन तद्वीय जीवस्य शक्तिविशेष इत्यर्थः, तत्र, किं नु 'वीरस्य' सुभटस्य वीरत्वं ?, केन वा कारणेनासौ वीर इत्यभिधीयते, नुशब्दो वितर्कवाची, एतद्वितर्कयति-किं तद्वीयं ?, वीरस्य वा किं तवीरत्वमिति ॥१॥ ३९५
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy