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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने प्रस्तावना
श्रीवीर्याधिकारः है । तथा आशा की जाती है कि यह लडका बड़ा होने पर इस मोटी शिला को उठा लेगा तथा हाथी को दबा देगा और घोड़ेपर चढ़कर उसे दौड़ायेगा इत्यादि ।।
अब इन्द्रियों का वीर्य बतलाते हैं-कान आदि इन्द्रियां अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हैं और वे पाँच प्रकार की हैं, उनमें प्रत्येक संभव और सम्भाव्य भेद से दो प्रकार की हैं। उनमें सम्भव में, जैसे कान का विषय बारह योजन तक है । इसी तरह शेष चार इन्द्रियों का भी जिसका जो विषय है वह जानना चाहिए। सम्भाव्य में, जैसे जिस मनुष्य की इन्द्रिय नष्ट नहीं है, परन्तु वह थका हुआ है अथवा क्रोधित है या प्यासा हुआ है अथवा रोग आदि से ग्लान है, उस समय उसकी कोई इन्द्रिय अपने विषय के ग्रहण करने में समर्थ नहीं है परन्तु इन दोषों के शान्त हो जाने पर वे अपने विषयों को ग्रहण करेंगी यह अनुमान किया जाता है ॥९४-९५||
अब आध्यात्मिक बल दिखाने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं- जो आत्मा में है, उसे अध्यात्म कहते हैं और जो उसमें होता है, उसे आध्यात्मिक कहते हैं अर्थात् अन्दर की शक्ति से उत्पन्न जो सात्विक वस्तु है, वह आध्यात्मिक कहलाती है । वह अनेक प्रकार की है। उसमें (१) उद्यम अर्थात् ज्ञान उपार्जन करने में और तपस्या करने में जो अन्दर का उत्साह है, वह पहला आध्यात्मिक बल है । इसका भी संभव और सम्भाव्य भेद यथायोग जोड़ लेना चाहिए। (जो अभी उद्यम करता है, उसका उत्साह संभव और जो पीछे उद्यम करेगा उसका सम्भाव्य समझना चाहिए) (२) धृति संयम में स्थिरता है अर्थात् चित्त को ठीकाने रखना है । (३) धीरत्व के कारण जीव परीषह और उपसर्गों से चलायमान नहीं होता है । (४) शौण्डी-- त्याग के उच्चकोटि की भावना को शौण्डीर्य कहते हैं, जैसे भरत महाराज का मन, चक्रवर्ती के छ:खण्ड का राज्य छोड़ने पर भी कम्पित नहीं हुआ था । अथवा दुःख में खेद नहीं करना शौण्डीर्य्य है, अथवा कठिन कार्य करने का समय आजाने पर दूसरे की आशा को छोड़कर यह हमारा ही कर्तव्य है, यह मानकर खुश होते हुए उस काम को पूरा करना शौण्डीर्य है । (५) क्षमावीर्यदूसरा गाली आदि दे तो भी मन में क्षोभ न करना किन्तु यह विचारना चाहिए जैसे कि
कोई गाली आदि देवे तो बुद्धिमान को तत्त्व अर्थ के विचार में बुद्धि का उपयोग करना चाहिए, यदि वस्तुतः अपना दोष हो तो क्यों क्रोध करना चाहिए ? तथा दोष न हो तो वह अपने पर लागू नहीं होता, फिर क्रोध क्यों करना चाहिए ? तथा
गाली देना, हनन करना, जान से मारना, तथा धर्मभ्रष्ट करना ये सब मूर्ख जीवों को सुलभ है (ये मूल् के कार्य है) परन्तु धीर पुरुष इनमें आगे आगे का कार्य न करने से अधिक अधिक लाभ मानते हैं।
(६) परीषह तथा उपसर्गों से नहीं दबना गाम्भीर्य है । अथवा दूसरे के मन में चमत्कार पैदा करनेवाला उत्कुष्ट अनुष्ठान किया हो तो अहंकार न लाना गाम्भीर्य्य है । कहा है कि
(चुल्लच्छल्लेइ) अर्थात् जिस घड़े को पूरा भरा नहीं होता है, वही घड़ा शब्द करता है तथा जो घूघूरू खाली होता है, वही छम छम बजता है परन्तु भरा घड़ा और भरा घूघूरू शब्द नहीं करता है इसी तरह थोडे ज्ञानवाले अहङ्कार करते हैं, परन्तु ज्ञानरूपी रत्नों से भरे हुए उत्तम पुरुष घमण्ड नहीं करते हैं।
(७) उपयोग-साकार और अनाकार भेद से उपयोग दो प्रकार का है। उसमें साकार उपयोग आठ प्रकार का है और अनाकार उपयोग चार प्रकार का है, इनके द्वारा, उपयोग रखनेवाला पुरुष, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप अपने विषय का निश्चय करता है अर्थात् समझता है। (८) योगवीर्य-मन, वचन और काय के भेद से योगवीर्य तीन प्रकार का है। उनमें अकुशल मन को रोकना अर्थात् बुरे कार्य में मन को न जाने देना, तथा सत्कर्म में उसे प्रवृत्त करना अथवा मन को एकाग्र करना, मनोवीर्य है । उत्तम साधु मनोवीर्य के प्रभाव से निर्मल परिणामवाले तथा धर्म में स्थिर परिणामवाले होते हैं । वचनवीर्य के प्रभाव से साधु पुरुष इस प्रकार सम्हाल कर बोलते हैं कि उनके वचन में पुनरूक्ति (फिर फिर वही बात आना) दोष नहीं आता तथा निरवद्य भाषा बोलते हैं । कायवीर्य्य के प्रभाव से साधु पुरुष अपने हाथ पैर को स्थिर रखकर कछुवे की तरह बैठते हैं । तपोवीर्य बारह प्रकार का है, उसके प्रभाव से साधु उत्साह के साथ तप करते हैं और उसमें खेद नहीं करते हैं । एवं सत्रह प्रकार के संयम में, "मैं अकेला हूं" ऐसी एकत्व भावना करता हुआ साधु जो बलपूर्वक संयम का पालन करता है और यह भाव
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