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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते अष्टममध्ययने प्रस्तावना श्री वीर्याधिकारः "चेल्लुच्छलेइ' जं होइ ऊणयं रित्तयं कणकणेइ । भरियाई ण खुब्भंती सुपुरिसविद्वाणभंडाई ||१|| उपयोगवीर्यं साकारानाकारभेदात् द्विविधं तत्र साकारोपयोगोऽष्टधाऽनाकारश्चतुर्धा तेन चोपयुक्तः स्वविषयस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपस्य परिच्छेदं विधत्त इति, तथा योगवीर्यं त्रिविधं मनोवाक्कायभेदात्, तत्र मनोवीर्यमकुशलमनोनिरोधः कुशलमनसश्च प्रवर्तनम्, मनसो वा एकत्वीभावकरणं, मनोवीर्येण हि निर्ग्रन्थसंयताः प्रवृद्धपरिणामा अवस्थितपरिणामाश्च भवन्तीति, वाग्वीर्येण तु भाषमाणोऽपुनरुक्तं निरवद्यं च भाषते, कायवीर्यं तु यस्तु समाहितपाणिपादः कूर्मवदवतिष्ठत इति, तपोवीर्यं द्वादशप्रकारं तपो यद्बलादग्लायन् विधत्त इति, एवं सप्तदशविधे संयमे एकत्वाद्यध्यवसितस्य यद्बलात्प्रवृत्तिस्तत्संयमवीर्यं कथमहमतिचारं संयमे न प्राप्नुयामित्यध्यवसायिनः प्रवृत्तिरित्येवमाद्यध्यात्मवीर्यमित्यादि च भाववीर्यमिति, वीर्यप्रवादपूर्वे चानन्तवीर्यं प्रतिपादितं किमिति ?, यतोऽनन्तार्थं पूर्वं भवति, तत्र च वीर्यमेव प्रतिपाद्यते, अनन्तार्थता चातोऽवगन्तव्या, तद्यथा “सव्वणईणं जा होज्ज वालुया गणणमागया सन्ती । तत्तो बहुयतरागी एगस्स अत्यो पुव्वस्स ||१|| सव्वसमुद्दाण जलं जइपत्थमियं हविज्जं संकलियं । एत्तो बहुयतरागो अत्थो एगस्स पुव्वस्स ||२||” तदेवं पूर्वार्थस्यानन्त्याद्वीर्यस्य च तदर्थत्वादनन्तता वीर्यस्येति ॥ ९६ ॥ सर्वमप्येतद्वीर्यं त्रिधेति प्रतिपादयितुमाहसव्यंपिय तं तिविहं पंडिय बालविरियं च मीसं च । अहावावि होति दुविहं अगारअणगारियं चेव ॥९७॥नि० | सर्वमप्येतद्भाववीर्यं पण्डितबालमिश्रभेदात् त्रिविधं तत्रानगाराणां पण्डितवीर्यं, बालपण्डितवीर्यं त्वगाराणां गृहस्थानामिति, तत्र यतीनां पण्डितवीर्यं सादिसपर्यवसितं सर्वविरतिप्रतिपत्तिकाले सादिता सिद्धावस्थायां तदभावात्सान्तं, बालपण्डितवीर्यं तु देशविरतिसद्भावकाले सादि सर्वविरतिसद्भावे तद्भ्रंशे वा सपर्यवसानं, बालवीर्यं त्वविरतिलक्षणमेवाभव्यानामनाद्यपर्यवसितं भव्यानां त्वनादिसपर्यवसितं सादिसपर्यवसितं तु विरतिभ्रंशात् सादिता पुनर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तादुत्कुष्टतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तात् विरतिसद्भावात् सान्ततेति, साद्यपर्यवसितस्य तृतीयभङ्गकस्य त्वसम्भव एव यदिवा - पण्डितवीर्यं सर्वविरतिलक्षणं, विरतिरपि चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमलक्षणात् त्रिविधैव, अतो वीर्यमपि धैव भवति ||९७|| गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनु सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सुत्रमुच्चारयितव्यं तच्चेदं टीकार्थ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से वीर्य्य के छः निक्षेप हैं । इनमें नाम और स्थापना सुगम हैं । द्रव्यवीर्य्य, आगम और नोआगम से, दो प्रकार का है । इनमें जो पुरुष वीर्य्य को जानता है परन्तु उसमें उपयोग नहीं रखता है, वह आगम से द्रव्यवीर्य्य है । नोआगम से द्रव्यवीर्य्य, ज्ञशरीर और भव्य शरीर से व्यतिरिक्त सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद से तीन प्रकार का है। सचित्त भी द्विपद, चतुष्पद और अपद भेद से तीन प्रकार का है। इनमें द्विपदों में अरिहन्त, चक्रवर्ती और बलदेव आदि का जो वीर्य्य है तथा जिस स्त्रीरत्न का जो वीर्य्य है, सो यहां द्रव्य वीर्य्य समझना चाहिए। तथा चतुष्पदों में उत्तम घोड़ा, उत्तम हाथी अथवा सिंह, व्याघ्र, और शरभ आदि का बल है, वह द्रव्यवीर्य्य जानना चाहिए। तथा अपदों में गोशीर्ष चन्दन के वीर्य्य को द्रव्यवीर्य्य जानना चाहिए। गोशीर्ष चन्दन के लेप करने से शीतकाल में शीत और ग्रीष्मकाल में गर्मी दूर होती है । अतः उसका वीर्य्य अपदद्रव्यवीर्य्य है ||११|| अब नियुक्तिकार अचित्त वस्तुओं का वीर्य बताने के लिए कहते हैंआहार, आवरण (जो लड़ाई में शरीर की रक्षा करता है ) और हथियार का जो वीर्य (शक्ति) है वह अचित्तद्रव्य वीर्य्य है । इनमें आहार का वीर्य्य यह है - (सद्यः ) अर्थात् घेवर (एक प्रकार की मिठाई ) खाने से शीघ्र इन्द्रियों में तेजी आती है तथा हृदय प्रसन्न होता है और कफ का रोग दूर होता है, इत्यादि आहार का वीर्य्य जानना चाहिए । एवं औषधियों का जो शरीर में गड़े हुए काँटे आदि को निकालने और घाव भरने तथा विष को हरण करने एवं बुद्धि की वृद्धि का वीर्य्य (शक्ति) है, रसवीर्य्य है । विपाकवीर्य्य, जो चिकित्सा शास्त्र में कहा है, सो यहाँ लेना चाहिए । एवं योनिप्राभृत नामक ग्रन्थ के द्वारा पृथक्-पृथक् द्रव्यवीर्य्य समझ लेना चाहिए । रक्षण में - 1. छुल्लुच्छलइ प्र० । 2. उद्गीरति यद्भवत्यूनकं रिक्तकं कणकणति भृतानि न क्षुभ्यन्ते सुपुरुषविज्ञानभाण्डानि ||१|| 3. सर्वासां नदीनां यावन्त्यो भवेयुर्वालुका गणनमागताः सत्यः ततो बहुतरोऽर्थं एकस्य पूर्वस्य ||9|| 4. सर्वसमुद्राणां जलं यतिप्रमितं तत् भवेत्संकलितं ततो० ||२|| ३९२
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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