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________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १८ परसमयवक्तव्यतायामफलवादित्वाधिकारः नहीं है। ऐसी दशा में क्षण में नष्ट होनेवाले अनित्य पदार्थों की कारणों से उत्पत्ति होती है, यह कैसे हो सकता है ? | यदि कहो कि क्षणमात्र स्थित रहनेवाले पहले पदार्थ से उत्तर पदार्थ की उत्पत्ति होती है । इसलिए क्षणिक पदार्थों में परस्पर कारण-कार्य्य भाव हो सकता है तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि पहला क्षणिक पदार्थ, स्वयं नष्ट होकर उत्तर पदार्थ को उत्पन्न करता है अथवा नष्ट न होकर उत्पन्न करता है ? यदि वह स्वयं नष्ट होकर उत्तर पदार्थ को उत्पन्न करता है तो यह नहीं हो सकता है क्योंकि जो स्वयं नष्ट हो गया है, वह दूसरे को किस तरह उत्पन्न कर सकता है ? । यदि कहो कि पहला पदार्थ स्वयं नष्ट न होकर उत्तर पदार्थ को उत्पन्न करता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि उत्तर पदार्थ के काल में पूर्व पदार्थ का व्यापार विद्यमान होने से तुम्हारा क्षणभङ्गवादरूप सिद्धान्त ही नहीं रह सकता । यदि कहो कि जैसे तराजू का एक पलड़ा, स्वयं नीचा होता हुआ दूसरे पलड़े को ऊपर उठाता है, उसी तरह पहला पदार्थ स्वयं नष्ट होता हुआ उत्तर पदार्थ को उत्पन्न करता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर स्पष्ट ही तुम दोनों पदार्थों को एक काल में स्थित रहना स्वीकार करते हो, जो क्षणभङ्गवाद सिद्धान्त के प्रतिकूल है। जिस पदार्थ का नाश होता है, उसकी वह नाशावस्था उससे भिन्न नहीं है, इसी तरह उत्पन्न होते हुए पदार्थ की उत्पत्ति अवस्था भी उस पदार्थ से भिन्न नहीं है । ऐसी दशा में उत्पत्ति और विनाश एक साथ मानने पर उनके धर्मीरूप पूर्व और उत्तर पदार्थ की भी एक काल में स्थिति सिद्ध होगी । यदि उत्पत्ति और विनाश को, उन पदार्थों का धर्म न मानो तो उत्पत्ति और विनाश, कोई वस्तु ही सिद्ध न होंगे। तथा यह जो कहा है कि - " पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके नाश का कारण है ।" इसका समाधान यह है कि यदि पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके नाश का कारण है तो किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति ही न होनी चाहिए क्योंकि उनके विनाश का कारण उनकी उत्पत्ति उनके निकट विद्यमान है। यदि कहो कि"उत्पत्ति के पश्चात् पदार्थ का विनाश होता है।" तो वह विनाश, उत्पत्ति के समय न होकर जब पश्चात् होता है तब वह उत्पत्ति के अनंतर क्षण में ही होगा, चिर काल के पश्चात् न होगा इसका क्या कारण है ? यदि कहो कि- "विनाश का कारण न होने के कारण चिरकाल के बाद विनाश नहीं होता है।" जैसा कि कहा है- "विनाश बिना ही कारण होता है । इसलिए वह स्वाभाविक है ।" तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि मुद्गर आदि के प्रहार के पश्चात् ही घट आदि का विनाश देखा जाता है। यदि कहो कि हमने पहले यह कहा है कि- "मुद्गर आदि घट का क्या कर सकते हैं, इत्यादि" सो ठीक है, आपने कहा अवश्य है परन्तु अयुक्त कहा है क्योंकि अभाव शब्द में पर्युदास और प्रसज्य रूप जो आपने दो विकल्प किये है और दोनों पक्षों में दोष भी दिखाया है। यह ठीक नहीं है. क्योंकि अभाव शब्द का पर्युदास अर्थ मानने पर घट से भिन्न कपाल रूप पदार्थ को मुद्गर उत्पन्न करता है और घट, परिणामी अनित्य है, इसलिए वह कपाल रूप में परिणत होता है, अतः मुद्गर आदि घट का कुछ नहीं करते यह किस प्रकार हो सकता है ? । क्रिया को प्रतिषेध करनेवाला प्रसज्य-प्रतिषेध तो यहाँ नहीं माना जाता है किंतु प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव रूप चार अभावों में से यहाँ प्रध्वंसाभाव का ग्रहण किया जाता है । उस प्रध्वंसाभाव में कारकों का व्यापार होता ही है, क्योंकि वह वस्तुतः पदार्थ का पर्य्याय यानी अवस्थाविशेष है, अभाव मात्र नहीं है, वह अवस्थाविशेष भाव रूप है इसलिए वह पूर्व अवस्था को नष्ट कर के उत्पन्न होता है। इसलिए कपाल यह सिद्ध है तथा विनाश तथा पदार्थों की व्यवस्था अर्थात् अर्थात् प्रागभाव' न मानने अन्योऽन्याभाव न मानने पर । 1 आदि की जो उत्पत्ति है, वही घट आदि का विनाश है। अतः विनाश कारणवश होता है, कभी-कभी होता है, सदा नहीं होता है, इस कारण भी वह सहेतुक है, यह सिद्ध होता है के लिए अवश्य चार प्रकार के अभावों को मानना चाहिए। कहा भी है- "कार्य्यद्रव्यम्" पर कार्य्यद्रव्य अनादि हो जायगा और प्रध्वंस' न मानने पर वस्तु का अन्त न होगा तथा 1. उत्पत्ति के पूर्व कार्य्य के अभाव को 'प्रागभाव' कहते हैं। जो घट कल होनेवाला है, उसका आज अभाव है। इस अभाव को 'प्रागभाव' कहते हैं । यदि यह अभाव न माना जाय तो उत्पत्ति के पहले भी कार्य्य का सद्भाव होने से सभी पदार्थ आदि रहित हो जायँगे परन्तु आदि रहित है नहीं । अतः पदार्थों की आदि सिद्ध करने के लिए 'प्रागभाव' मानना आवश्यक है। 2. (प्रध्वंस) उत्पत्ति के पश्चात् पदार्थ का नाश हो जाना 'प्रध्वंसाभाव' कहलाता है। यदि यह न माना जाय तो सभी पदार्थ अन्तरहित हो जायेंगे। अतः इसे स्वीकार करना चाहिए। 3. (अन्योऽन्याभाव) एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ से भिन्नता को 'अन्योऽन्याभाव' कहते हैं । यदि यह न माना जाय तो सभी पदार्थ भिन्न-भिन्न न होकर एक स्वरूप हो जायँगे, इसलिए इसका स्वीकार भी आवश्यक है। जो पदार्थ तीनों काल में नहीं होता है उसका अभाव 'अत्यंताभाव' कहलाता है, जैसे आकाश पुष्प और खरविषाण का अभाव अत्यन्ताभाव है । ४१
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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