SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १८ परसमयवक्तव्यतायांबौद्धमताधिकारः कृतनाश और अकृतागम रूप दोष तुम्हारे मत में आते हैं। (क्रिया करनेवाला अपनी क्रिया का फल नहीं भोगता है, यह कतनाश दोष है और जो क्रिया नहीं करता है, वह उस क्रिया का फल भोगता है, यह 'अकृतागम' दोष है ।) यदि कहो कि ज्ञान संतान (ज्ञान का सिलसिला) एक है, इसलिए जो ज्ञान संतान क्रिया करता है, वही उसका फल भोगता है, इसलिए हमारे मत में कृतनाश और अकृतागम दोष नहीं आते हैं, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान संतान भी प्रत्येक ज्ञानों से भिन्न नहीं है । अतः उस ज्ञान संतान से भी कुछ फल नहीं है । यदि कहो कि पूर्व पदार्थ, उत्तर पदार्थ में अपनी वासना को स्थापित करके नष्ट होता है, जैसा कि कहा है"यस्मिन्नेव हि संताने" अर्थात जिस ज्ञान संतान में कर्म वासना स्थित रहती है, उसी में फल उत्पन्न होता है, जैसे जिस कपास में लाली होती है, उसी में फल उत्पन्न होता है, तो यहाँ भी यह विकल्प खड़ा किया जाता है, क्या वह वासना, उस क्षणिक पदार्थ से भिन्न है अथवा अभिन्न है ? यदि भिन्न है तो वह वासना उस क्षणिक पदार्थ को वासित नहीं कर सकती और यदि वह अभिन्न है तो उस क्षणिक पदार्थ के समान वह भी क्षणक्षयिणी है। अतः आत्मा न होने पर सुख-दुःख का भोग नहीं हो सकता परन्तु सुख-दुःख का भोग अनुभव किया जाता है। अतः आत्मा अवश्य है, यह सिद्ध होता है । यदि आत्मा न हो तो गंध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द इन पाँच विषयों का अनुभव होने के पश्चात्- "मैंने पाँच ही विषय जाने" यह संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्येक इन्द्रिय का ज्ञान अपने विषय से भिन्न विषय में प्रवृत्त नहीं होता है । यदि कहो कि आलयविज्ञान से संकलनात्मक ज्ञान होगा तो इस प्रकार तुमने दूसरे नाम से आत्मा को ही अंगीकार किया है । तथा बौद्धागम भी आत्मा का प्रतिपादन करता है । वह आगम यह है (इत एकनवते) अर्थात् हे भिक्षुओं ! इस कल्प से एकानवे कल्प में मेरी शक्ति के द्वारा एक पुरुष मारा गया था । अतः उस कर्म का फलस्वरूप मेरे पैर में कांटे का वेध हुआ है। (कृतानि कर्माण्यति) मनुष्य के द्वारा किया हुआ दारुण कर्म, आत्मनिन्दा से कम हो जाता है और प्रकाश करने से तथा उसका प्रायश्चित्त करने से एवं फिर उसे न करने से वह अत्यन्त नष्ट हो जाता है, यह मैं कहता इस प्रकार बौद्धागम भी आत्मा का समर्थन करता है । तथा "पदार्थ क्षणिक है", यह सिद्ध करते हुए बौद्धों ने जो यह कहा है कि- "अपने कारणों से उत्पन्न होता हुआ पदार्थ नित्य उत्पन्न होता है अथवा अनित्य उत्पन्न होता है ?" यह विकल्प ठीक नहीं है क्योंकि नित्य पदार्थ, उत्पत्ति विनाश रहित स्थिर एक स्वभाववाला होता है । इसलिए उसमें कारणों का व्यापार होना सम्भव नहीं है, अतः नित्य पदार्थ की उत्पत्ति मानकर उत्पन्न होनेवाले पदार्थों में नित्यत्व पक्ष का कथन अयुक्त है । तथा नित्य पक्ष में दोष बताते हुए जो आपने यह कहा है कि- "नित्य पदार्थ न तो क्रमशः क्रिया कर सकता है और न एक ही साथ क्रिया कर सकता है।" यह दोष आपके क्षणिकत्व पक्ष में भी समान ही है, क्योंकि क्रमशः अथवा एक साथ क्रिया के लिए प्रवृत्त होता हुआ क्षणिक पदार्थ भी अवश्य सहकारी कारण की अपेक्षा रखता है, क्योंकि सामग्री कार्य को उत्पन्न करती है, कोई एक पदार्थ उत्पन्न नहीं करता है । परन्तु वह सहकारी कारण उस क्षणिक पदार्थ में कोई विशेषता नहीं उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि क्षणिक पदार्थ दुर्विज्ञेय होने के कारण विशेषता स्थापन करने योग्य नहीं होता । तथा क्षणिक पदार्थ, एक दूसरे का उपकारक अथवा उपकार्य नहीं हो सकता ऐसी दशा में उनका सहकारी होना भी नहीं बनत और सहकारी के बिना विशिष्ट कार्यों की उत्पत्ति हो नहीं सकती। इसलिए पदार्थों को क्षणिक न मानकर अनित्य मानना ही ठीक है । पदार्थ अपने कारणों से उत्पन्न होता हुआ अनित्य उत्पन्न होता है, यह दूसरा पक्ष मानना ही युक्ति -संगत है। इस पक्ष में भी यह विचार करना चाहिए कि पदार्थ क्षणमात्र में ही नष्ट हो जाते हैं, इसलिए वे अनित्य हैं ? अथवा वे नाना रूपों में परिणत होते रहते हैं, इसलिए अनित्य हैं ? । यदि यह माना जाय कि पदार्थ, क्षणमात्र में ही नष्ट हो जाते हैं । इसलिए वे अनित्य हैं तो इस पक्ष में कोई पदार्थ न तो किसी पदार्थ का कारण हो सकता है और न कोई किसी का कार्य हो सकता है क्योंकि सभी पदार्थ क्षणमात्र ही स्थित रहते हैं । फिर वे किसी का कारण या कार्य्य कैसे हो सकते हैं ? । तथा उन क्षण-विनाशी पदार्थों में कारकों का व्यापार भी सम्भव ४०
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy