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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १९ परसमयवक्तव्यतायां अफलवादीत्वाधिकारः एक वस्तु सर्व वस्तु स्वरूप हो जायगी इत्यादि । इस प्रकार क्षणभंगवाद विचारसंगत न होने से 'वस्तु परिणामी और अनित्य हैं।' यह पक्ष मानना ही ठीक है । इस प्रकार यह आत्मा, परिणामी, ज्ञान का आधार, दूसरे भवों में जानेवाला और भूतों से कथंचित् भिन्न है । तथा शरीर के साथ मिलकर रहने के कारण वह, कथंचित् शरीर से अभिन्न भी है। वह आत्मा नारक, तिर्य्यक, मनुष्य और अमरगति के कारण रूप कर्मों के द्वारा भिन्न-भिन्न रूपों में बदलता रहता है । इसलिए वह सहेतुक भी है । तथा आत्मा के निज स्वरूप का कभी नाश नहीं होता है । इसलिए वह नित्य तथा निर्हेतुक भी है । इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा सिद्ध होने पर भी उसे चार धातुओं से बना हुआ शरीर मात्र बताना पागल की बड़बड़ाहट के समान अयुक्त है । अतः बुद्धिमान् को वह नहीं सुनना चाहिए || १८ || साम्प्रतं पञ्चभूतात्माऽद्वैततज्जीवतच्छरीराकारकात्मषष्ठक्षणिकपञ्चस्कन्धवादिनामफलवादित्वं वक्तुकामः सूत्रकारस्तेषां स्वदर्शनफलाऽभ्युपगमं दर्शयितुमाह अब सूत्रकार, पंचभूतात्मवादी, आत्माद्वैतवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी, अकारकवादी, आत्मषष्ठवादी, और क्षणिक पञ्चस्कन्धवादी, इन सब को अफलवादी बताने के लिए, तथा इन लोगों का अपने-अपने दर्शनों के प्रति जो मन्तव्य है वह बताने के लिए कहते हैं 'अगारमावसंतावि आरण्णा वावि पव्वया । 2 इमं दरिसणमावण्णा, सव्वदुक्खा अविमुच्चई ।।१९।। छाया - अगारमावसन्तोऽपि आरण्या वाऽपि प्रव्रजिताः । इदं दर्शनमापन्नाः सर्वदुःखात्प्रमुच्यते ॥ व्याकरण - (अगारं) कर्म (आवसंता) कर्ता का विशेषण (अवि) अव्यय ( आरण्णा, पव्वया) कर्ता का विशेषण ( इमं दरिसणं) कर्म ( आवण्णा) कर्ता का विशेषण (सव्वदुक्खा) अपादान (विमुच्चई) क्रिया । अन्वयार्थ - ( अगारं) घर में (आवसंतावि) निवास करनेवाले (आरण्णा वावि) अथवा वन में निवास करनेवाले (पव्वया) अथवा प्रव्रज्या धारण किये हुए पुरुष (इमं दरिसणं) इस दर्शन को ( आवण्णा) प्राप्त कर (सव्वदुक्खा) सब दुःखों से ( विमुच्चई) मुक्त हो जाते हैं। भावार्थ - घर में निवास करनेवाले गृहस्थ, तथा वन में रहनेवाले तापस, एवं प्रव्रज्या धारण किये हुए मुनि जो कोई इस मेरे दर्शन को प्राप्त करते हैं, वे सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं, यह वे अन्यदर्शनी कहते हैं । टीका अगारं गृहं तद् ‘आवसन्तः ' तस्मिंस्तिष्ठन्तो गृहस्था इत्यर्थः, आरण्या वा तापसादयः प्रव्रजिताश्च 4 शाक्यादयः अपिः संभावने, इदं ते संभावयन्ति यथा - इदम् अस्मदीयं दर्शनम् 'आपन्ना' आश्रिताः सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्ते आर्षत्वादेकवचनं सूत्रे कृतं, तथाहि - पञ्चभूततज्जीवतच्छरीरवादिनामयमाशय: - यथेदमस्मदीयं दर्शनं ये समाश्रितास्ते गृहस्थाः सन्तः सर्वेभ्यः शिरस्तुण्डमुण्डनदण्डाजिनजटाकाषायचीवरधारणकेशोल्लुञ्चननाग्न्यतपश्चरणकायक्लेशरूपेभ्यो दुःखेभ्यो मुच्यन्ते, तथा चोचुः “तपांसि यातनाश्चित्राः संयमी भोगवञ्चनम् । अग्रिहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेव लक्ष्यते ||१|| " इति, सांख्यादयस्तु मोक्षवादिन एवं सम्भावयन्ति यथा येऽस्मदीयं दर्शनमकर्तृत्वात्माऽद्वैतपञ्चस्कन्धादिप्रतिपादकमापन्नाः प्रव्रजितास्ते सर्वेभ्यो जन्मजरामरणगर्भपरम्पराऽनेकशारीरमानसातितीव्रतरासातोदयरूपेभ्यो दुःखेभ्यो विमुच्यन्ते, सकलद्वन्द्वविनिर्मोक्षं मोक्षमास्कन्दन्तीत्युक्तं भवति ॥ १९ ॥ टीकार्थ घर को 'अगार' कहते हैं, उसमें निवास करनेवाले गृहस्थ, तथा वन में रहनेवाले तापस आदि, एवं प्रव्रज्या धारण किये हुए शाक्य आदि, यह विश्वास रखते हैं कि हमारे दर्शन को स्वीकार किये हुए पुरुष स 1. पव्वगा । 2. एतं । 3. विमुच्चंति चू. । 4. दगसोयरिआदओ चू. तच्चणिआणं उवासगावि सिज्यंति आरोप्यगावि अणागमणधम्मिणो य देवा तओ चैव णिव्वंति । चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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