SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १७ परसमयवक्तव्यतायां बौद्धमताधिकारः एकसाथ प्रवृत्त होता है ? अथवा क्रमशः प्रवृत्त होता है । यदि कहो कि वह क्रमशः क्रिया करने में प्रवृत्त होता है, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वह जिस समय एक क्रिया करने के लिए प्रवृत्त होता है, उस समय उसमें दूसरी क्रिया करने का स्वभाव है या नहीं ? यदि है तो वह एक ही साथ दूसरी क्रियाओं को भी क्यों नहीं कर देता? क्रमश: क्यों करता है ? यदि कहो कि उस पदार्थ का दूसरी क्रिया करने का स्वभाव है तो उस समय भी अवश्य है, परन्तु सहकारी कारण की अपेक्षा से वह क्रमशः क्रियाओं को करता है, एक साथ नहीं करता है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह सहकारी कारण उस पदार्थ में कुछ विशेषता उत्पन्न करता है या नहीं? यदि विशेषता उत्पन्न करता है, तो वह विशेषता उस पदार्थ के पहले स्वभाव को हटाकर उत्पन्न होती है या हटाए बिना ही उत्पन्न होती है ? यदि उसके पहले स्वभाव को हटाकर उसमें विशेषता उत्पन्न होती है तो वह पदार्थ, पहला स्वभाव न होने के कारण अनित्य सिद्ध होता है, नित्य नहीं हो सकता । यदि कहो कि उस पदार्थ के पहले स्वभाव का परित्याग नहीं होता है तो सहकारी कारण के द्वारा उसमें कोई विशेषता उत्पन्न नहीं की जाती यह सिद्ध होता है। ऐसी दशा में सहकारी की अपेक्षा करने की क्या आवश्यकता है ? 1 यदि कहो कि - "सहकारी कारण कुछ भी उपकार नहीं करता फिर भी विशिष्ट कार्य्य के लिए उसकी अपेक्षा की जाती है ।" तो यह भी अयुक्त है क्योंकि - ( अपेक्षेत परं) जो पदार्थ कुछ उपकार करता है, उसी की अपेक्षा की जाती हैं परन्तु जो कुछ उपकार नहीं करता उसकी अपेक्षा कोई क्यों करेगा ? यदि कहो कि उस पदार्थ का एक क्रिया करते समय दूसरी क्रिया करने का स्वभाव नहीं होता है इसलिए वह एक क्रिया करने के समय दूसरी क्रिया नहीं करता है तब तो स्पष्ट ही उस पदार्थ की नित्यता नष्ट हो जाती है । (क्योंकि स्वभाव भेद ही अनित्यता का लक्षण है ।) यदि कहो कि - " वह नित्य पदार्थ, एक साथ ही सब क्रियाओं को, कर देता है" तब तो प्रथम क्षण में ही सब क्रिया हो जाने के कारण द्वितीय आदि क्षण में वह पदार्थ अकर्ता सिद्ध होता है । अतः प्रथम क्षण में क्रिया का कर्ता होकर द्वितीयादि क्षण में अकर्ता होना ही उस पदार्थ की अनित्यता है। यदि कहो कि उस पदार्थ का स्वभाव वही रहता है, इसलिए द्वितीयादि क्षण में भी वह उन्हीं क्रियाओं को बार-बार करता है तो यह भी अयुक्त है क्योंकि जो एक बार किया जा चुका है, उसका फिर किया जाना नहीं होता । तथा वह पदार्थ यदि एक ही साथ सब क्रियाओं को कर देता है तो द्वितीयादि क्षण में होनेवाले पदार्थ भी प्रथम क्षण में ही हो जाने चाहिए क्योंकि द्वितीयादि क्षण में उत्पन्न होनेवाले पदार्थों को उत्पन्न करने का स्वभाव उस वस्तु में प्रथम क्षण में भी विद्यमान है। यदि प्रथम क्षण में उस वस्तु का वह स्वभाव नहीं है, तब तो उसकी अनित्यता स्पष्ट है। इस प्रकार क्रमशः या एक साथ अर्थ क्रिया न कर सकने के कारण अपने कारणों से नित्य पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती यह सिद्ध है। इस प्रकार जब कि अनित्य स्वभाव ही पदार्थ उत्पन्न होना सिद्ध होता है, तब सभी पदार्थ, क्षणमात्र स्थित रहते हैं । यह हमारा कथन निर्विघ्न सिद्ध होता है । कहा भी - है (जातिरेव ) पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके नाश का कारण है । जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं होता वह पीछे कैसे नष्ट हो सकता है ? शङ्का यद्यपि पदार्थ अनित्य हैं तथापि जब जिसका नाश कारण उपस्थित होता है तब उसका नाश होता है, अत: अपने-अपने नाश कारण की अपेक्षा से नष्ट होनेवाले अनित्य पदार्थ क्षणविनाशी नहीं हो सकते । यह, गुरु की उपासना नहीं किये हुए पुरुष का वचन है क्योंकि घट आदि के नाश का कारण मुद्गर आदि घट आदि का क्या करता है ? इसमें क्या पूछना है ? । मुद्गर आदि घट का अभाव करता है । ऐसा समाधान ३६ -
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy