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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १८ परसमयवक्तव्यतायां बौद्धमताधिकारः कहनेवाले मूर्ख से कहना चाहिए कि- "अभाव"1 शब्द में 'न' पर्युदास है अथवा प्रसज्य है ? यदि पर्युदास है तो इसका अर्थ यह होगा कि एक भाव से भिन्न दूसरा भाव (पदार्थ) अभाव है। जैसे यहाँ घट से भिन्न पट आदि घट का अभाव है । उस पट आदि में यदि मुद्गर का व्यापार होता है तो वह मुद्गर घट का क्या करता है? अर्थात् कुछ नहीं करता है । यदि अभाव पद का अर्थ पर्य्यदास न मानकर प्रसज्य प्रतिषेध अर्थ मानो तो यह अर्थ होगा कि- "विनाश का कारण मुद्गर आदि भाव (वस्तु) को नहीं उत्पन्न करता है।" इस प्रकार अभाव शब्द के द्वारा क्रिया का ही प्रतिषेध किया जाता है, परन्तु मुद्गर आदि पदार्थ घटादि पदार्थ को उत्पन्न नहीं करता है, क्योंकि घटादि पदार्थ अपने कारणों से ही उत्पन्न हुए हैं। यदि कहो कि भाव (पदार्थ) के अभाव को 'अभाव' कहते हैं । वह अभाव मुद्गर के द्वारा किया जाता है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव, अवस्तु तथा नीरूप है । उसमें कारकों का व्यापार कैसे हो सकता है ? यदि अभाव में भी कारकों का व्यापार हो तो गधे के सींग में भी कारकों का व्यापार होना चाहिए । अतः विनाश का कारण मुद्र आदि, कुछ नहीं करता है, किन्तु पदार्थ अपने स्वभाव से ही अनित्य उत्पन्न होते हैं और उनके क्षणिक होने में कोई बाधक नहीं है, इसलिए वे क्षणिक हैं । इस गाथा में 'तु' शब्द पूर्वोक्त मतवादियों से इस मत का भेद बताने के लिए है । यही भेद इस श्लोक के उत्तरार्ध द्वारा बतलाते हैं- "अण्णो अणण्णो", जैसे पाँच भूत और छट्ठा आत्मा को माननेवाले सांख्यवादी भूतों से भिन्न आत्मा मानते हैं, तथा जैसे चार्वाक पाँच भूतों से अभिन्न आत्मा स्वीकार करते हैं, उस तरह ये बौद्धगण नहीं मानते हैं । ये बौद्धगण शरीर रूप में परिणत पाँच भूतों से उत्पन्न अथवा आदि-अन्त रहित नित्य आत्मा को स्वीकार नहीं करते हैं ॥१७॥ - तथाऽपरे बौद्धाश्चातुर्धातुकमिदं जगदाहुरित्येतद्दर्शयितुमाह - तथा दूसरे बौद्ध इस जगत् को चार धातुओं से उत्पन्न बतलाते हैं । यह दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं । पुढवी 2आउ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ । चत्तारि धाउणो रूवं, एवमाहंसु यावरे ॥१८॥ छाया - पृथिव्यापस्तेजश्च तथा वायुश्चकतः । चत्वारि थातो रूपाणि, एवमाहुरपरे । व्याकरण - (पुढवी, आउ, तेऊ, वाऊ) ये सभी प्रथमान्त, और अर्थाक्षिप्त धातु के विशेष्य हैं । (एगओ) अव्यय (चत्तारि) रूप का 1. “नत्रौँ द्वौ समाख्यातौ पर्युदासप्रसज्यको पर्युदासः सदृग्ग्राही प्रसज्यस्तु निषेध कृत्"- अर्थात् नञ् दो प्रकार के होते हैं, एक पर्युदास और दूसरा प्रसज्य । इनमें पर्युदास सदृश पदार्थ का बोधक होता है और प्रसज्य, क्रिया का निषेध करता है । जैसे “अब्राह्मणमानय" अर्थात् अब्राह्मण को लाओ । यहाँ अब्राह्मण पद से ब्राह्मणभिन्न और ब्राह्मण के समान क्षत्रिय आदि का बोध होता है। इसलिए कहनेवाले का आशय यह है कि ब्राह्मण के समान क्षत्रिय आदि को लाओ । यहाँ नञ् पर्युदास है । प्रसज्य का उदाहरण यह है- "अश्राद्ध-भोजी ब्राह्मणः असूर्यम्पश्याः राजदाराः" अर्थात् यह ब्राह्मण श्राद्धभोजन नहीं करता है तथा राजा की स्त्रियाँ सूर्य को नहीं देखती हैं । यहाँ नञ् श्राद्धभोजन रूप क्रिया और सूर्य के दर्शन रूप क्रिया का प्रतिषेध करता है इसलिए यह नञ् प्रसज्यप्रतिषेध है । प्रस्तुत विषय में जो अभाव शब्द है उसकी व्याख्या भी पर्युदास और प्रसज्य रूप दो प्रकार का नार्थ होने से दो प्रकार की हो सकती है । यदि पर्युदास मानें तो "विनाश-हेतुरभावं करोति" इस वाक्य का यह अर्थ होगा कि विनाश का कारण दण्ड, घटरूप भाव से भिन्न दूसरे भाव पट आदि पदार्थ को उत्पन्न करता है। ऐसी दशा में वह घट का कुछ नहीं करता यह बात सिद्ध होती है, अतः मुद्गर आदि के द्वारा घट का नाश किया जाता है यह कथन असङ्गत है, यह बौद्धों का आशय है । यदि अभाव शब्द में पर्युदास न मान कर प्रसज्य माने तब इसका अर्थ यह होगा कि- “विनाश का कारण मुद्गर आदि घटरूप भाव को उत्पन्न नहीं करता है, क्योंकि प्रसज्य क्रिया का प्रतिषेधक होता है। ऐसी दशा में भी घट के साथ दण्ड आदि का कोई सम्बन्ध नहीं ठहरता। अतः दण्ड आदि से घट का नाश कहना मिथ्या है । यह बौद्ध का आशय है। 2. आऊय तेऊ य चू० । 3. जाणगा चू० ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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