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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १७ परसमयवक्तव्यतायां बौद्धमताधिकारः भावान्तरे यदि मुद्गरादिव्यापारो न तर्हि तेन किञ्चिद् घटस्य कृतमिति । अथ प्रसज्यप्रतिषेधस्तदाऽयमर्थो - विनाशहेतुरभावं करोति, किमुक्तं भवति ? भावं न करोतीति, ततश्च क्रियाप्रतिषेध एव कृतः स्यात्, न च घटादेः पदार्थस्य मुद्गरादिना करणं, तस्य स्वकारणैरेव कृतत्वात्, अथ भावाभावोऽभावस्तं करोतीति, तस्य तुच्छस्य नीरूपत्वात् कुतस्तत्र कारकाणां व्यापारः ?, अथ तत्राऽपि कारकव्यापारो भवेत् खरशृङ्गादावपि व्याप्रियेरन् कारकाणीति । तदेवं विनाशहेतोरकिञ्चित्करत्वात् स्वहेतुत एवानित्यताक्रोडीकृतानां पदार्थानामुत्पत्तेर्विघ्नहेतोश्चाभावात् क्षणिकत्वमवस्थितमिति । 'तु' शब्दः पूर्ववादिभ्योऽस्य व्यतिरेकप्रदर्शकः, तमेव श्लोकपश्चार्धेन दर्शयति 'अण्णो अणण्णो' इति । ते हि बौद्धा यथाऽऽत्मषष्ठवादिनः सांख्यादयो भूतव्यतिरिक्तमात्मानमभ्युपगतवन्तो यथा च चार्वाका भूताव्यतिरिक्तं चैतन्याख्यमात्मानमिष्टवन्तस्तथा 'नैवाहुः' नैवोक्तवन्तः, तथा हेतुभ्यो जातो हेतुकः कायाकारपरिणतभूतनिष्पादित इति यावत्, तथाऽहेतुकोऽनाद्यपर्यवसितत्वान्नित्य इत्येवं तमात्मानं ते बौद्धाः नाभ्युपगतवन्त इति ||१७|| टीकार्थ कोई वादी- बौद्ध, पाँच स्कन्ध बतलाते हैं। वे कहते हैं कि इस जगत् में रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार नामक पाँच ही स्कन्ध हैं, इनसे भिन्न कोई आत्मा नाम का स्कन्ध नहीं है । पृथिवी और धातु आदि तथा रूप आदि को 'रूप स्कन्ध' कहते हैं । तथा सुख, दुःख और असुख, अदुःख के अनुभव को 'वेदना स्कन्ध' कहते हैं । एवं रूपविज्ञान, रसविज्ञान आदि विज्ञान को 'विज्ञान - स्कन्ध' कहते हैं । तथा संज्ञा के कारण वस्तु विशेष के बोधक शब्द को 'संज्ञा - स्कन्ध' कहते हैं । तथा पाप-पुण्य आदि धर्मसमूह को 'संस्कार स्कन्ध' कहते हैं । इन पाँच स्कन्धों से भिन्न कोई आत्मा नाम का पदार्थ प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जाता है तथा उस आत्मा के साथ नियत सम्बन्ध रखनेवाला कोई लिङ्ग भी गृहीत नहीं होता इसलिए अनुमान द्वारा भी वह आत्मा नहीं जाना जा सकता । प्रत्यक्ष और अनुमान को छोड़कर पदार्थ को सत्य बतानेवाला कोई तीसरा प्रमाण भी नहीं है । (अतः पाँच स्कन्धों से भिन्न आत्मा नहीं है), इस प्रकार बालक के समान पदार्थ ज्ञानरहित बौद्धगण कहते हैं । तथा बौद्धों के माने हुए वे पूर्वोक्त पाँच स्कन्ध' क्षणयोगी हैं । परमसूक्ष्म काल को 'क्षण' कहते हैं, उस क्षण के साथ सम्बन्ध को 'क्षणयोग' कहते हैं । जो पदार्थ उस क्षण के साथ सम्बन्ध रखता है, उसको 'क्षणयोगी' कहते हैं । जो पदार्थ क्षणमात्र स्थित रहता है, वह क्षणयोगी कहलाता है, यह अर्थ है । पदार्थ क्षणमात्र स्थित रहते हैं, इस विषय को सिद्ध करने के लिए, बौद्धगण यह कहते हैं- अपने कारणों से उत्पन्न होते हुए पदार्थ में क्या नश्वर स्वभाव उत्पन्न होता है, अथवा अनश्वरस्वभाव उत्पन्न होता है? यदि अनश्वर स्वभाव उत्पन्न होता है तो पदार्थ में व्यापक होकर रहनेवाली अर्थकिया, क्रमशः या एक साथ उस पदार्थ में नहीं हो सकती इसलिए व्यापक रूप उस 1अर्थ क्रिया के अभाव होने से व्याप्य रूप उस पदार्थ का भी अभाव होगा क्योंकि जो पदार्थ, वस्तु की क्रिया करता है, वही वस्तुतः सत् है । इसलिए वह नित्य' (अविनश्वर स्वभाववाला) पदार्थ क्रिया करने में 1. वस्तु की क्रिया को अर्थक्रिया कहते हैं । जैसे आग की क्रिया है जलाना, पानी की क्रिया है प्यास बुझाना, इत्यादि । जो जलाना रूप क्रिया करती है वह आग है और जो प्यास बुझाने की क्रिया करता है वह पानी है । जो जलाना रूप क्रिया नहीं करती है वह आग नहीं है और जो प्यास बुझाने की क्रिया नहीं करता है वह पानी नहीं है । आशय यह है कि- जो वस्तु की क्रिया करता है वही वस्तु है परन्तु जो वस्तु की क्रिया नहीं करता है वह वस्तु नहीं है । इससे यह सिद्ध होता है कि क्रिया करना ही वस्तु का लक्षण है । इसलिए जो क्रिया करता है, वही वस्तु है और जो क्रिया नहीं करता वह वस्तु नहीं है । अपने कारणों से उत्पन्न होता हुआ पदार्थ यदि अविनश्वर स्वभाव उत्पन्न हो तो वह न तो क्रमशः क्रिया कर सकता है और न एक साथ ही सब क्रिया कर सकता है, क्योंकि उसका स्वभाव बदलता नहीं है और स्वभाव बदले बिना वह भिन्न-भिन्न क्रियाओं को कर नहीं सकता अतः अविनश्वर स्वभाववाले पदार्थ द्वारा क्रिया न हो सकने से वह कोई वस्तु ही नहीं हो सकती है, यह यहाँ की टीका का आशय है । अविनश्वर स्वभाववाला पदार्थ एक साथ या क्रमशः कोई क्रिया नहीं कर सकता है, यह टीकाकार स्वयं इसके आगे बता रहे हैं । - 2. जिसका स्वभाव न बदले वह पदार्थ नित्य कहा जाता है। यदि पदार्थ नित्य है तो उससे कोई भी क्रिया नहीं हो सकती है क्योंकि पदार्थ का स्वभाव परिवर्तन हुए बिना उससे कोई भी कार्य्य नहीं हो सकता । पृथिवी और जल के संयोग से यदि बीज के स्वभाव का परिवर्तन न हो तो उससे अङ्कुर कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता इससे सिद्ध होता है कि सहकारी कारण के संयोग से कारण द्रव्य का स्वभाव अवश्य परिवर्तित होता है । जिसका स्वभाव परिवर्तित होता है, उसी को अनित्य कहते हैं । इस जगत् का पदार्थमात्र ही परिवर्तनशील हैं। अतः उनकी अनित्यता स्पष्ट है । ३५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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