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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ९ परसमयवक्तव्यतायामात्माद्वैतवाद्यधिकारः कि एक आलय विज्ञान भी है, अतः उससे सम्मेलनात्मक ज्ञान भी होगा, तो तुमने आत्मा का ही एक दूसरा नाम आलयविज्ञान रखा है। ज्ञान गुण है, वह गुणी के बिना नहीं हो सकता है । इसलिए ज्ञान गुण का गुणी आत्मा अवश्य होना चाहिए । वह आत्मा सर्वव्यापी नहीं है, क्योंकि उसका गुण स्वरूप ज्ञान, सब जगह नहीं पाया जाता है, जैसे घट का गुण सर्वत्र नहीं पाया जाता है । तथा वह आत्मा श्यामाक (धान्य विशेष) के दाने के बराबर अथवा अंगूठे के पर्व के समान भी नहीं है, क्योंकि इतना छोटा आत्मा, ग्रहण किये हुए शरीर को व्याप्त नहीं कर सकता है। उस आत्मा का चर्मपर्यन्त समस्त शरीर में व्याप्त होना पाया जाता है। अतः सिद्ध होता है कि वह आत्मा चर्मपर्यन्त समस्त शरीर व्यापी है । संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्म से बँधा हुआ है । वह कभीभी अपने स्वरूप में स्थित नहीं है, इसलिए अमूर्त होने पर भी उस आत्मा का मूर्त कर्म के साथ संबंध होने में कोई विरोध नहीं आता है। कर्म के साथ सम्बन्ध होने के कारण उस आत्मा की सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त आदि अनेक प्रकार की अवस्थायें होती हैं । वह आत्मा यदि एकान्त क्षणिक हो तो ध्यान, अध्ययन, श्रम और प्रत्यभिज्ञा (पहिचानना) आदि नहीं हो सकते हैं और एकान्त नित्य होने पर नारक, तिर्यक, मनुष्य और अमरगति रूप उसका परिणाम नहीं हो सकता है । तस्मात् वह आत्मा कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य है । अतः इस विषय में अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है ॥८॥ - साम्प्रतमेकात्माद्वैतवादमुद्देशार्थाधिकारप्रदर्शितं पूर्वपक्षयितुमाह - अब सूत्रकार, प्रथम उद्देशक के अधिकार में कहे हुए एकात्माद्वैतवाद को पूर्वपक्ष में रखते हुए कहते हैंजहा य पुढवीथूभे, एगे नाणाहि दीसइ । एवं भो ! कसिणे लोए, विन्नू नाणाहि दीसइ ॥९॥ छाया - यथा च पृथिवीस्तूप एको नाना हि दृश्यते । एवं भोः । कृत्स्नो लोकः, विद्वान् नाना हि दृश्यते ॥ व्याकरण - (जहा य) अव्यय (पुढवीथूभे) प्रथमान्त दीसइ क्रिया का कर्म (एगे) पुढवीथूभे का विशेषण । (नाणाहि) अव्यय (दीसइ) क्रिया, कर्मवाच्य । (एव) अव्यय (भो !) सम्बोधनार्थ अव्यय (कसिणे लोए) विन्नू का विशेषण (विन्नू) दीसइ क्रिया का कर्म । (नाणाहि) अव्यय (दीसइ) कर्मवाच्य क्रिया । अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (एगे य) एक ही (पुढवीथूभे) पृथिवीसमूह (नाणाहि) नानारूपों में (दीसइ) देखा जाता हैं । (भो) हे जीवों! (एवं) इसी तरह (विन्नू) आत्मस्वरूप (कसिणे) समस्त (लोए) लोक (नाणाहि) नानारूपों में (दीसइ) देखा जाता है । भावार्थ- जैसे, एक ही पृथिवीसमूह, नानारूपों में देखा जाता है, उसी तरह एक आत्मस्वरूप यह समस्त जगत् नाना रूपों में देखा जाता है। टीका - दृष्टान्तबलेनैवार्थस्वरूपावगतः पूर्वं दृष्टान्तोपन्यासः, यथेत्युपप्रदर्शने, च शब्दोऽपिशब्दार्थे, स च भिन्नक्रम एगे इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, पृथिव्येव स्तूपः पृथिव्या वा स्तूपः पृथ्वीस्तूपः पृथिवीसंघाताख्योऽवयवी, स चैकोऽपि यथा नानारूपः- सरित्समुद्रपर्वतनगरसन्निवेशाद्याधारतया विचित्रो दृश्यते निम्नोन्नतमृदुकठिनरक्तपीतादिभेदेन वा दृश्यते, न च तस्य पृथिवीतत्त्वस्यैतावता भेदेन भेदो भवति, 'एवम्' उक्तरीत्या 'भो' इति परामन्त्रणे, कृत्स्नोऽपि लोकः-चेतनाचेतनरूप एको विद्वान् वर्तते, इदमत्र हृदयम्- एक एव ह्यात्मा विद्वान् ज्ञानपिण्डः पृथिव्यादिभूताद्याकारतया नाना दृश्यते, न च तस्यात्मन एतावताऽऽत्मतत्त्वभेदो भवति, तथा चोक्तम्“एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ||१||" तथा 'पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति, यदेजति यन्नैजति यद् दूरे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यत्सर्वस्यास्य बाह्यतः' इत्यात्माद्वैतवादः ।।९।। टीकार्थ - दृष्टान्त के बल से ही पदार्थ का स्वरूप जाना जाता है, इसलिए सूत्र में पहले दृष्टान्त का 1. ब्रह्मबिन्दूपनिषत् श्लोक १२ ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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