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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ८ परसमयवक्तव्यतायांचार्वाकाधिकारः (खिड़की) नष्ट होने पर भी उसके द्वारा जाने हुए अर्थ को देवदत्त स्मरण करता है। इसी तरह अर्थापत्ति प्रमाण से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। जैसे कि- लेप्यकर्म आदि में, पृथिवी आदि भूतसमुदाय होते हुए भी सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आदि क्रियायें नहीं होती हैं, इससे निश्चित होता है कि- सुख, दुःख और इच्छा आदि क्रियाओं का समवायी कारण, भूतों से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ है । वह पदार्थ आत्मा है। इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमानादिमूलक अर्थापत्ति प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि समझनी चाहिए। उस अर्थापत्ति प्रमाण का लक्षण यह है- (प्रमाणषट्क) अर्थात् "जिस पदार्थ का अन्य पदार्थ के बिना न होना छः ही प्रमाणों से निश्चित है, वह पदार्थ अपनी सिद्धि के लिए जो अन्य अदृष्ट पदार्थ की कल्पना करता है, उसे अर्थापत्ति, कहते हैं ।" तथा आगम से भी आत्मा का अस्तित्व जानना चाहिए । वह आगम यह है(अस्थि मे) अर्थात् "परलोक में जानेवाली मेरी आत्मा है" इत्यादि । अथवा आत्मा का साधन करने के लिए दूसरा प्रमाण ढूँढने की क्या आवश्यकता है ? सब प्रमाणों में श्रेष्ठ प्रत्यक्ष प्रमाण से ही आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है, क्योंकि आत्मा का ज्ञान गुण, प्रत्यक्ष है और वह ज्ञान गुण, अपना गुणी आत्मा से अभिन्न है। इसलिए आत्मा प्रत्यक्ष ही है, जैसे रूप आदि गुणों के प्रत्यक्ष होने पर पट आदि प्रत्यक्ष होता है । आशय यह है कि"मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ" इत्यादि । "मैं" इस ज्ञान से ग्रहण किया जाने वाला आत्मा प्रत्यक्ष है क्योंकि "मैं" यह ज्ञान, आत्मा का ही ज्ञानरूप है । तथा "मेरा यह शरीर है, मेरा पुराना कर्म है" इत्यादि, व्यवहारों से आत्मा शरीर से पृथक् बतलाया जाता है । इसी तरह आत्मा की सिद्धि के लिए दूसरे प्रमाण भी स्वयं तथा चार्वाकों ने जो यह कहा है कि- "चैतन्य पाँच महाभूतों से भिन्न नहीं है, क्योंकि वह महाभूतों का कार्य्य है, जैसे घट आदि" । यह भी असङ्गत है क्योंकि इसमें हेतु असिद्ध है। जैसे कि- भूतों का कार्य चैतन्य नहीं है, क्योंकि भूतों का चैतन्य गुण नहीं है, यह पहले ही "भूतों का कार्य चैतन्य मानने पर 'मैं पांच ही विषयों को जानता हूँ', यह सम्मेलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता है, इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा बता दिया गया है । अतः भूतों से भिन्न, ज्ञान का आधार आत्मा अवश्य है, यह सिद्ध हुआ । शङ्का - ज्ञानों का आधारभूत और ज्ञान से भिन्न आत्मा मानने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि ज्ञान से ही सभी सम्मेलनात्मक ज्ञान आदि भी सिद्ध हो सकते हैं । अतः शरीर की मेदग्रन्थि की तरह एक व्यर्थ आत्मा मानने की क्या आवश्यकता है ? । ज्ञान से ही सभी व्यवहार हो सकता है । यह इस प्रकार समझना चाहिए। ज्ञान ही चैतन्यरूप है उसका, शरीर रूप में परिणत अचेतन भूतों के साथ सम्बन्ध होने पर सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आदि क्रिया उत्पन्न होती हैं, तथा उसी को सम्मेलनात्मक ज्ञान होता है और वही ज्ञान दूसरे भव में भी जाता है । इस प्रकार सब विषयों की व्यवस्था हो जाने पर आत्मा की कल्पना की क्या आवश्यकता है? समाधान- इसका समाधान बताया जाता है । ज्ञान का आधारभूत, ज्ञान से भिन्न आत्मा माने बिना अनेक वस्तुओं का सम्मेलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता है। जैसे कि- प्रत्येक इन्द्रियाँ अपने विषय को ही ग्रहण करती हैं, दूसरी इन्द्रिय के विषय को दूसरी इन्द्रिय ग्रहण नहीं करती है, ऐसी दशा में सब विषयों को जानने वाला किसी एक आत्मा के न होने से "मैंने पाँच ही विषय जाने" यह सम्मेलनरूप ज्ञान नहीं हो सकता है। यदि कहो 1. जो पुरुष, किसी पदार्थ को देखता है, वही दूसरे समय में उस पदार्थ को स्मरण करता है, परन्तु जो देखता नहीं है, वह स्मरण नहीं कर सकता है। देवदत्त ने जो देखा है, उसे वही स्मरण कर सकता है, यज्ञदत्त उसे नहीं कर सकता है । देवदत्त ने नेत्र द्वारा जिस पदार्थ को कभी देखा है, उसको वह, नेत्र नष्ट होने पर भी स्मरण करता है, यह अनुभव सिद्ध है । यदि नेत्र द्वारा पदार्थ को देखनेवाला नेत्र से भिन्न आत्मा नहीं है तो नेत्र नष्ट होने पर नेत्र के द्वारा देखे हुए अर्थ को देवदत्त कैसे स्मरण कर सकता ? इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि नेत्र आदि इन्द्रियों के द्वारा वस्तु का साक्षात्कार करनेवाला इन्द्रियों से भिन्न एक आत्मा अवश्य है । जैसे पांच खिड़कियों के द्वारा देवदत्त वस्तु को प्रत्यक्ष करता है, उसी तरह वह आत्मा पांच इन्द्रियों के द्वारा रूप आदि विषयों को प्रत्यक्ष करता है। 2. “पीनोऽयं देवदत्तोः दिवा न भुङ्क्ते" अर्थात् यह मोटा देवदत्त दिन में नहीं खाता है । बिना खाये कोई मोटा नहीं हो सकता है, यह सभी प्रमाणों से निश्चित है। परन्तु यहाँ देवदत्त का दिन में खाना निषेध किया है और साथ ही उसे मोटा भी कहा है । परन्तु खाये बिना वह मोटा नहीं हो सकता है । इसलिए जाना जाता है कि वह रात में भोजन करता है । यहाँ रात में देवदत्त का भोजन करना कहा नहीं है, तो भी वह अर्थापत्ति प्रमाण से जाना जाता है । यही अर्थापत्ति का उदाहरण है।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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