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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १० परसमयवक्तव्यतायां आत्माद्वैतवाद्यधिकारः कथन किया है । गाथा में 'यथा' शब्द दृष्टान्त का द्योतक है । 'च' शब्द अपि शब्द के अर्थ में आया है। उसका क्रम भिन्न है। इसलिए 'च' शब्द को 'एके' पद के पश्चात समझना चाहिए । पथिवी रूप जो समह अथवा पृथिवी का समूह रूप जो अवयवी है, वह एक होने पर भी जैसे नदी, समुद्र, पर्वत और नगर की स्थिति के आधार आदि रूप से विचित्र देखा जाता है, अथवा नीचा, ऊँचा, मृदु, कठिन, रक्त और पीत भेद से नाना प्रकार का देखा जाता है फिर भी इस भेद के कारण उस पृथिवी तत्त्व का भेद नहीं होता है । इसी प्रकार हे शिष्यों ! चेतन और अचेतन रूप यह समस्त लोक एक आत्मा ही है । कहने का आशय यह है कि- एक ही ज्ञानपिण्ड आत्मा, पृथिवी आदि भूतों के आकार में नाना प्रकार का देखा जाता है, परन्तु इस भेद के कारण उस आत्मा के स्वरूप में कोई भेद नहीं होता है । जैसा कि कहा है (एक एव ही) एक ही आत्मा सभी भूतों में स्थित है । वह एक होकर भी जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा के समान नाना रूप में दीखाई देता है। तथा (पुरुष) इस जगत् में जो हो चुका है और जो आगे होनेवाला है वह सब पुरुष (आत्मा) ही है। वही आत्मा देवत्व का अधिष्ठाता है और वही प्राणियों के भोग के लिए कारणावस्था को छोड़कर जगत् रूप को धारण करता है। 'वह गतिशील है और गतिरहित भी है वह दू र है, और निकट भी है। वह सब के अन्दर है और बाहर भी है । यह आत्माद्वैतवाद समाप्त हुआ ।।९।। - अस्योत्तरदानायाह । - इस आत्माऽद्वैतवाद का उत्तर देने के लिए कहते हैं - एवमेगेत्ति जप्पंति, मंदा आरंभणिस्सिआ । एगे किच्चा सयं पावं, तिव्वं दुक्खं नियच्छइ ॥१०॥ छाया - एवमेक इति जल्पन्ति मन्दा आरम्भनि:श्रिताः । एके कृत्वा स्वयं पापं, तीवं दुःखं नियच्छन्ति ॥ व्याकरण - (एवं) अव्यय । (एगे) कर्ता । (त्ति) अव्यय । (जप्पंति) क्रिया । (मन्दा आरम्भणिस्सिआ) कर्ता के विशेषण । (एगे) कर्ता। (सयं) अव्यय । (किच्चा) पूर्वकालिक क्रिया (पावं) कर्म (तिव्वं) दुःख का विशेषण । (दुक्खं) कर्म (नियच्छइ) क्रिया । अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (एगे) कोई (मन्दा) अज्ञानी पुरुष (त्ति) एक ही आत्मा है यह (जप्पंति) बतलाते हैं । परन्तु (आरंभणिस्सिआ) आरम्भ में आसक्त (एगे) कोई पुरुष ही (पावं) पाप (किच्चा) करके (सयं) स्वयं (तिव्वं) तीव्र (दुक्खं) दुःख को (नियच्छइ) प्राप्त करते हैं। भावार्थ - कोई अज्ञानी पुरुष, एक ही आत्मा है, ऐसा कहते हैं, लेकिन आरम्भ में आसक्त रहनेवाले जीव ही पाप कर्म करके स्वयं दुःख भोगते हैं, दूसरे नहीं । टीका - ‘एव'मिति अनन्तरोक्तात्माद्वैतवादोपप्रदर्शनम् ‘एके' केचन पुरुषकारणवादिनो 'जल्पन्ति' प्रतिपादयन्ति, इत्याह- 'मन्दा' जडाः सम्यकपरिज्ञानविकलाः, मन्दत्वं च तेषां युक्तिविकलात्माऽद्वैतपक्षसमाश्रयणात, तथाहि- यद्येक एवात्मा स्यान्नात्मबहुत्वं ततो ये सत्त्वाः- प्राणिनः कृषीवलादयः 'एके' केचन आरम्भेप्राण्युपमर्दनकारिणि व्यापारे नि:श्रिता आसक्ताः सम्बद्धा अध्युपपन्नाः, ते च संरम्भसमारम्भारम्भैः कृत्वा उपादाय स्वयमात्मना पापमशुभ-प्रकृतिरूपमसातोदयफलं तीव्र दु:खं तदनुभवस्थानं वा नरकादिकं नियच्छतीति । आर्षत्वाद्बहुवचनार्थे एकवचनमकारि ततश्चायमर्थो- निश्चयेन यच्छन्त्यवश्यंतया गच्छन्ति- प्राप्नुवन्ति त एवारम्भासक्ता नान्य इति, एतन्न स्याद्, अपि त्वेकेनापि अशुभे कर्मणि कृते सर्वेषां शुभानुष्ठायिनामपि तीव्रदुःखाभिसम्बन्धः स्याद्, एकत्वादात्मन इति, न चैतदेवं दृश्यते । तथाहि- य एव कश्चिदसमञ्जसकारी स एव लोके तदनुरूपा विडम्बनाः समनुभवनुपलभ्यते नान्य इति, तथा सर्वगतत्वे आत्मनो बन्धमोक्षाद्यभावः, तथा प्रतिपाद्यप्रतिपादकविवेकाभावाच्छास्त्रप्रणयनाभावश्च किंमत १९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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