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________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा ८ उत्पन्न नहीं होता है, जैसे बालु के ढेर से तेल की उत्पत्ति नहीं होती है" इत्यादि । तथा चार्वाक ने जो पूर्व में यह कहा है कि- " मद्य के प्रत्येक अङ्गों में न रहनेवाली भी मदशक्ति समुदाय से प्रकट होती हैं ।" यह भी अयुक्त है क्योंकि किण्व आदि मद्य के अङ्गों में कुछ मदशक्ति अवश्य होती है। किण्व में भूख दूर करने की भ्रमि (शिर में चक्कर) उत्पन्न करने की शक्ति होती है । एवं जल में भी प्यास बुझाने की शक्ति होती है अतः प्रत्येक भूतों को चेतन नहीं मानने पर दृष्टान्त और दाष्टांन्त की समता नहीं हो सकती। यदि भूतों को चेतन मानो तो मरण नहीं हो सकता क्योंकि मरे हुए शरीर में भी पञ्च महाभूत विद्यमान रहते हैं। यदि कहो कि "यह नहीं है क्योंकि मरे हुए शरीर में वायु या तेज नहीं होते हैं, इसलिए मरण होता हैं" तो यह अशिक्षित पुरुष का प्रलाप है क्योंकि मरे हुए शरीर में सूजन पाई जाती है, इसलिए उसमें वायु का अभाव नहीं है । तथा पाचनस्वरूप कोथ (मवाद उत्पन्न होना) तेज का कार्य्य है, इसलिए उसमें अग्नि का भी अभाव नहीं है । यदि कहो कि - "उस शरीर से कोई सूक्ष्म वायु अथवा सूक्ष्म तेज निकल जाता है इसलिए मरण होता है" तो इस प्रकार तुम दूसरे नाम से जीव को ही स्वीकार करते हो, इसलिए यह कोई दूसरी बात नहीं है? तथा भूतों के समुदाय मात्र से चैतन्यगुण की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि पृथिवी आदि भूतों को एकत्र कर देने पर उनसे चैतन्यगुण उत्पन्न नहीं होता है । यदि कहो कि- "शरीर रूप में परिणत होने पर पञ्च महाभूतों से चैतन्यगुण की उत्पत्ति होती है, तो यह भी नहीं है, क्योंकि दीवाल पर लिपकर बनाई हुई लेप्यमयप्रतिमा में समस्त भूतों के होने पर भी जड़ता ही पायी जाती है (चैतन्य नहीं पाया जाता) अतः पूर्वोक्त रीति से अन्वयव्यतिरेक के द्वारा विचार करने पर भूतों का धर्म चैतन्यगुण नहीं हो सकता, परन्तु यह शरीरों में पाया जाता है, अतः पारिशेष्यात् यह जीव का ही गुण है, भूतों का नहीं, अतः अपने दर्शन का पक्षपात छोड़कर तुम को यह जैन दर्शन स्वीकार करना चाहिए । परसमयवक्तव्यतायां चार्वाकाधिकारः 1 लोकायतिक ने पहले जो यह कहा है कि- "पृथिवी आदि भूतों से भिन्न आत्मा नहीं है क्योंकि उस आत्मा का बोधक कोई प्रमाण मिलता नहीं है और प्रमाण भी एकमात्र प्रत्यक्ष ही है इत्यादि" इसका समाधान दिया जाता है- यह जो कहा है कि "एकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, दूसरे अनुमान आदि प्रमाण नहीं हैं" यह गुरु की उपासना नहीं किये हुए पुरुष का प्रलाप है जो अर्थ को ठीक-ठीक बतलाता है, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण है, यह भी इस प्रकार बताया जाता है- किन्हीं प्रत्यक्ष व्यक्तियों को धर्मी (पक्ष) रूप से लेकर उनकी प्रमाणता इस प्रकार सिद्ध की जाती है कि- "ये प्रमाण हैं, क्योंकि ये प्रत्यक्ष व्यक्ति, अर्थ को ठीक-ठीक बतलाते हैं, जैसे अनुभव की हुई प्रत्यक्षव्यक्ति ।" जो प्रत्यक्षव्यक्ति अपने आत्मा में ज्ञात है, उसके द्वारा वह प्रत्यक्ष कर्ता दूसरे के प्रति व्यवहार नहीं कर सकता क्योंकि वह प्रत्यक्षव्यक्ति, उस प्रत्यक्ष कर्ता की ही बुद्धि में स्थित है और प्रत्यक्ष मूक होता है। तथा "अनुमान प्रमाण नहीं हैं" यह भी अनुमान के द्वारा ही अनुमान का खण्डन करता हुआ चार्वाक कैसे उन्मत्त नहीं हो सकता ? चार्वाक, अनुमान को इस प्रकार अप्रमाण कह सकता है, जैसे कि - "अनुमान प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह अर्थ को ठीक-ठीक नहीं बतलाता, जैसे अनुभव की हुई अनुमान व्यक्ति।" 1. अपना प्रत्यक्ष, अपने ही अनुभव में आता है, दूसरे की बुद्धि में नहीं आ सकता और ऐसा कोई साधन भी नहीं है, जिससे अपना प्रत्यक्ष दूसरे की बुद्धि में भी स्थापित किया जा सके। वाणी द्वारा समझाकर अपना प्रत्यक्ष दूसरे को बताया जाता है और उससे श्रोता को ज्ञान भी होता है परन्तु वह ज्ञान, प्रत्यक्ष नहीं है, वह तो शब्द सुनने से उसके अर्थ का ज्ञान है, उसे शब्दबोध कहते हैं। प्रत्यक्षज्ञान वह है जो अपनी इन्द्रियों के द्वारा अपने अनुभव में आता है। वह अनुभव अपनी ही बुद्धि में रहता है, दूसरे की बुद्धि में नहीं रखा जा सकता, इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान को गूंगे की तरह कहते हैं वह प्रत्यक्ष, प्रमाण है, यह बात प्रत्यक्ष कर्ता ही जानता है, दूसरा पुरुष नहीं जानता क्योंकि दूसरे पुरुष की बुद्धि में वह प्रत्यक्ष स्थित नहीं है, अतः दूसरे पुरुष के प्रति अपने प्रत्यक्ष की प्रमाणता वाणी द्वारा कहकर समझाई जाती है। । वह वाणी अनुमान के अङ्गस्वरूप पञ्चावयवात्मक वाक्य है। जैसे कि- “मेरा यह प्रत्यक्ष, प्रमाण है क्योंकि यह अर्थ को ठीक-ठीक बतलाता है, जैसे मेरा अनुभव किया हुआ पटप्रत्यक्ष । मेरा अनुभव किया हुआ पटप्रत्यक्ष ने जैसे सत्य अर्थ को बताया था, इसी तरह यह घटप्रत्यक्ष भी सत्य अर्थ को बताता है, अतः सत्य अर्थ को बताने के कारण यह घट प्रत्यक्ष भी प्रमाण है, इस प्रकार अपने प्रत्यक्ष की प्रमाणता सिद्ध करने के लिए अनुमान का आश्रय लेना ही पड़ता है, अतः अनुमान को प्रमाण न मानना अज्ञान का फल है । १५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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